रविवार, 30 नवंबर 2008

सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र

सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्र
किसी भी श्रद्धा-विश्वास-युक्त स्त्री के द्वारा स्नानादि से शुद्ध होकर सूर्योदय से पहले नीचे लिखे मन्त्र की १० माला प्रतिदिन जप किये जाने से घर में सुख-समृद्धि की वृद्धि होती है तथा उसका सौभाग्य बना रहता है। किसी शुभ दिन जप का आरम्भ करना चाहिये तथा प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन के नवरात्रों में विधिपूर्वक हवन करवा कर यथाशक्ति कुमारी, वटुक आदि को भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिये। इस मन्त्र के हवन में समिधा केवल वट-वृक्ष की लेनी चाहिये।
मन्त्रः- " ॐॐ ह्रीं ॐ क्रीं ह्रीं ॐ स्वाहा।"
साथ ही नीचे लिखे "सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र" का प्रतिदिन कम-से-कम एक पाठ करना चाहिये। इससे सौभाग्य की रक्षा होती है।
सौभाग्याष्टित्तरशतनामस्तोत्र
निशम्यैतज्जामदग्न्यो माहात्म्यं सर्वतोऽधिकम्।
स्तोत्रस्य भूयः पप्रच्छ दत्तात्रेयं गुरुत्तमम्।।१
भगवंस्त्वन्मुखाम्भोजनिर्गमद्वाक्सुधारसम्।
पिबतः श्रोत्रमुखतो वर्धतेऽनुरक्षणं तृषा।।२
अष्टोत्तरशतं नाम्नां श्रीदेव्या यत्प्रसादतः।
कामः सम्प्राप्तवाँल्लोके सौभाग्यं सर्वमोहनम्।।३
सौभाग्यविद्यावर्णानामुद्धारो यत्र संस्थितः।
तत्समाचक्ष्व भगवन् कृपया मयि सेवके।।४
निशम्यैवं भार्गवोक्तिं दत्तात्रेयो दयानिधिः।
प्रोवाच भार्गवं रामं मधुराक्षरपूर्वकम्।।५
श्रृणु भार्गव यत्पृष्टं नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
श्रीविद्यावर्णरत्नानां निधानमिव संस्थितम्।।६
श्रीदेव्या बहुधा सन्ति नामानि श्रृणु भार्गव।
सहस्त्रशतसंख्यानि पुराणेष्वागमेषु च।।७
तेषु सारतरं ह्येतत् सौभाग्याष्टोत्तरात्मकम्।
यदुवाच शिवः पूर्वं भवान्यै बहुधार्थितः।।८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य भार्गव।
ऋषिरुक्तः शिवश्छन्दोऽनुष्टुप् श्रीललिताम्बिका।।९
देवता विन्यसेत् कूटत्रयेणावर्त्य सर्वतः।
ध्यात्वा सम्पूज्य मनसा स्तोत्रमेतदुदीरयेत्।।१०
।।अथ नाममन्त्राः।।
ॐ कामेश्वरी कामशक्तिः कामसौभाग्यदायिनी।
कामरुपा कामकला कामिनी कमलासना।।११
कमला कल्पनाहीना कमनीय कलावती।
कमलाभारतीसेव्या कल्पिताशेषसंसृतिः।।१२
अनुत्तरानघानन्ताद्भुतरुपानलोद्भवा।
अतिलोकचरित्रातिसुन्दर्यतिशुभप्रदा।।१३
अघहन्त्र्यतिविस्तारार्चनतुष्टामितप्रभा।
एकरुपैकवीरैकनाथैकान्तार्चनप्रिया।।१४
एकैकभावतुष्टैकरसैकान्तजनप्रिया।
एधमानप्रभावैधद्भक्तपातकनाशिनी।।१५
एलामोदमुखैनोऽद्रिशक्रायुधसमस्थितिः।
ईहाशून्येप्सितेशादिसेव्येशानवरांगना।।१६
ईश्वराज्ञापिकेकारभाव्येप्सितफलप्रदा।
ईशानेतिहरेक्षेषदरुणाक्षीश्वरेश्वरी।।१७
ललिता ललनारुपा लयहीना लसत्तनुः।
लयसर्वा लयक्षोणिर्लयकर्त्री लयात्मिका।।१८
लघिमा लघुमध्याढ्या ललमाना लघुद्रुता।
हयारुढा हतामित्रा हरकान्ता हरिस्तुता।।१९
हयग्रीवेष्टदा हालाप्रिया हर्षसमुद्धता।
हर्षणा हल्लकाभांगी हस्त्यन्तैश्वर्यदायिनी।।२०
हलहस्तार्चितपदा हविर्दानप्रसादिनी।
रामा रामार्चिता राज्ञी रम्या रवमयी रतिः।।२१
रक्षिणी रमणी राका रमणीमण्डलप्रिया।
रक्षिताखिललोकेशा रक्षोगणनिषूदिनी।।२२
अम्बान्तकारिण्यम्भोजप्रियान्तभयंकरी।
अम्बुरुपाम्बुजकराम्बुजजातवरप्रदा।।२३
अन्तःपूजाप्रियान्तःस्थरुपिण्यन्तर्वचोमयी।
अन्तकारातिवामांकस्थितान्तस्सुखरुपिणी।।२४
सर्वज्ञा सर्वगा सारा समा समसुखा सती।
संततिः संतता सोमा सर्वा सांख्या सनातनी ॐ।।२५
।।फलश्रुति।।
एतत् ते कथितं राम नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
अतिगोप्यमिदं नाम्नां सर्वतः सारमुद्धृतम्।।२६
एतस्य सदृशं स्तोत्रं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्।
अप्रकाश्यमभक्तानां पुरतो देवताद्विषाम्।।२७
एतत् सदाशिवो नित्यं पठन्त्यन्ये हरादयः।
एतत्प्भावात् कंदर्पस्त्रैलोक्यं जयति क्षणात्।।२८
सौभाग्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं मनोहरम्।
यस्त्रिसंध्यं पठेन्नित्यं न तस्य भुवि दुर्लभम्।।२९
श्रीविद्योपासनवतामेतदावश्यकं मतम्।
सकृदेतत् प्रपठतां नान्यत् कर्म विलुप्यते।।३०
अपठित्वा स्तोत्रमिदं नित्यं नैमित्तिकं कृतम्।
व्यर्थीभवति नग्नेन कृतं कर्म यथा तथा।।३१
सहस्त्रनामपाठादावशक्तस्त्वेतदीरयेत्।
सहस्त्रनामपाठस्य फलं शतगुणं भवेत्।।३२
सहस्त्रधा पठित्वा तु वीक्षणान्नाशयेद्रिपून्।
करवीररक्तपुष्पैर्हुत्वा लोकान् वशं नयेत्।।३३
स्तम्भेत् पीतकुसुमैर्णीलैरुच्चाटयेद् रिपून्।
मरिचैर्विद्वेषणाय लवंगैर्व्याधिनाशने।।३४
सुवासिनीर्ब्राह्मणान् वा भोजयेद् यस्तु नामभिः।
यश्च पुष्पैः फलैर्वापि पूजयेत् प्रतिनामभिः।३५
चक्रराजेऽथवान्यत्र स वसेच्छ्रीपुरे चिरम्।
यः सदाऽऽवर्तयन्नास्ते नामाष्टशतमुत्तमम्।।३६
तस्य श्रीललिता राज्ञी प्रसन्ना वाञ्छितप्रदा।
एतत्ते कथितं राम श्रृणु त्वं प्रकृतं ब्रुवे।।३७
।।श्रीत्रिपुरारहस्ये श्रीसौभाग्याष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रं।।

विपत्तिनाश, सम्पदा-प्राप्ति, साधन-सिद्धि

विपत्तिनाश, सम्पदा-प्राप्ति, साधन-सिद्धि

(१) श्रीहनुमानजी का अनुष्ठान

"ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाबलप्रचण्डाय सकलब्रह्माण्डनायकाय सकलभूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी-डाकिनी-यक्षिणी-पूतना-महामारी-सकलविघ्ननिवारणाय स्वाहा।
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् (गायत्री)
ॐ नमो हनुमते महाबलप्रचण्डाय महाभीम पराक्रमाय गजक्रान्तदिङ्मण्डलयशोवितानधवलीकृतमहाचलपराक्रमाय पञ्चवदनाय नृसिंहाय वज्रदेहाय ज्वलदग्नितनूरुहाय रुद्रावताराय महाभीमाय, मम मनोरथपरकायसिद्धिं देहि देहि स्वाहा।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलसिद्धिदाय वाञ्छितपूरकाय सर्वविघ्ननिवारणाय मनो वाञ्छितफलप्रदाय सर्वजीववशीकराय दारिद्रयविध्वंसनाय परममंगलाय सर्वदुःखनिवारणाय अञ्जनीपुत्राय सकलसम्पत्तिकराय जयप्रदाय ॐ ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रूं फट् स्वाहा।"
विधिः-
सर्वकामना सिद्धि का संकल्प करके उपर्युक्त पूरे मन्त्र का १३ दिनों में ब्राह्मणों द्वारा ३२००० जप पूर्ण कराये। तेरहवें दिन १३ पान के पत्तों पर १३ सुपारी रखकर शुद्ध रोली अथवा पीसी हुई हल्दी रखकर स्वयं १०८ बार उक्त मन्त्र का जाप करके एक पान को उठाकर अलग रख दे। तदन्तर पञ्चोपचार से पूजन करके गाय का घृत, सफेद दूर्वा तथा सफेद कमल का भाग मिलाकर उसके साथ उस पान का अग्नि में हवन कर दे। इसी प्रकार १३ पानों का हवन करे।
तदन्तर ब्राह्मणों द्वारा उक्त मन्त्र से ३२००० आहुतियाँ दिलाकर हवन करायें। तथा ब्राह्मणों को भोजन कराये।

(२) "ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नमो भगवते हनुमते मम कार्येषु ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यं साधय साधय मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हुं फट् स्वाहा।"
विधिः-मंगलवार से प्रारम्भ करके इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करता रहे और कम-से-कम सात मंगलवार तक तो अवश्य करे। इससे इसके फलस्वरुप घर का पारस्परिक विग्रह मिटता है, दुष्टों का निवारण होता है और बड़ा कठिन कार्य भी आसानी से सफल हो जाता है।

(३) "हनुमन् सर्वधर्मज्ञ सर्वकार्यविधायक।
अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।"
या
"हनूमन्नञ्जनीसूनो वायुपुत्र महाबल।
अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।"
विधिः- प्रतिदिन तीन हजार के हिसाब से ११ दिनों में ३३ हजार जप जो, फिर ३३०० दशांश हवन या जप करके ३३ ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाये। इससे अकस्मात् आयी हुई विपत्ति सहज ही टल जाती है।

(४) "राजीवनयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।"
विधिः- ब्राह्म मुहूर्त्त में उठकर स्नान करके प्रतिदिन उपर्युक्त अर्धाली सहित मन्त्र की सात माला जप करना चाहिए और प्रत्येक माला की समाप्ति पर धूप-गुग्गुल की अग्नि में आहुति देनी चाहिये। सातों माला पूरी होने पर उस भस्म को यत्न से उठाकर रख लेना चाहिये और प्रतिदिन कार्य में लगते समय उसे ललाट पर लगा लेना चाहिये। यह जप तथा भस्म-धारण प्रतिदिन करते रहने से विपत्तियों का नाश और कार्य में सफलता की प्राप्ति होती है।

(५) "पुनि मन करम रघुनायक। चरन कमल बंदौ सब लायक।।
राजीवनयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।
ॐ नमो भगवते सर्वेश्वराय श्रियः पतये नमः।।"
विधिः- उपर्युक्त चौपाईसहित इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार कम-से-कम जप करे। इससे विपत्तिनाश, सुखलाभ और स्त्रियों के द्वारा जपे जाने पर उनका सौभाग्य अचल होता है।

(६) "हे कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि यादवनन्दन।
आपद्भिः परिभूतां मां त्रायस्वाशु जनार्दन।।"
विधिः- इस मन्त्र का कम-से-कम १०८ बार स्वयं जप करे। कुछ दिन जपने के बाद स्वप्न में आदेश सम्भव है। अनुष्ठान के लिये ५१००० जप और दशांश ५१०० जप या आहुतियां आवश्यक है।

(७) "हा कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि यादवनन्दन।
आपद्भिः परिभूतां मां त्रायस्वाशु जनार्दन।।
हा कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि यादवनन्दन।
कौरवैः परिभूतां मां किं न त्रायसि केशवः।।"
विधिः- उपर्युक्त दोनों मन्त्रों का ३२ हजार जप करने से बड़े-बड़े संकट दूर हो जाते हैं।

(८) "ॐ कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।"
विधिः- प्रतिदिन विधिवत् भगवान् श्रीकृष्ण का या भगवान् विष्णु का पूजन करके उपर्युक्त मन्त्र का १२ दिनों में २५००० जप करने से स्वप्न के द्वारा कार्यसिद्धि का ज्ञान होता है।

(९) "ॐ नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
सर्वव्याधिविनाशाय प्रभो माममृतं कृधि।।"
विधिः- इस मन्त्र का प्रतिदिन प्रातःकाल जगते ही बिना किसी से कुछ बोले तीन बार जप करने से सब अनिष्ट का नाश होता है। इसका अनुष्ठान ५१००० मन्त्र जप तथा ५१०० दशांश हवन से सम्पन्न हो जाता है।

(१०) "ॐ रां श्रीं ऐं नमो भगवते वासुदेवाय ममानिष्टं नाशय नाशय मां सर्वसुखभाजनं सम्पादय सम्पादय हूं हूं श्रीं ऐं फट् स्वाहा।।"
विधिः- इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करना चाहिये।

(११) नमः सर्वनिवासाय सर्वशक्तियुताय ते।
ममाभीष्टं कुरुष्वाशु शरणागतवत्सल।।"
विधिः- इस मन्त्र का २१००० बार जप करना या कराना चाहिये तथा दशांश २१०० जप या हवन करना चाहिये।

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

भाग्योदय हेतु श्रीमहा-लक्ष्मी-साधना

भाग्योदय हेतु श्रीमहा-लक्ष्मी-साधना
भाग्योदय हेतु श्रीमहा-लक्ष्मी की तीन मास की सरल, व्यय रहित साधना है। यह साधना कभी भी ब्राह्म मुहूर्त्त पर प्रारम्भ की जा सकती है। 'दीपावली' जैसे महा्पर्व पर यदि यह प्रारम्भ की जाए, तो अति उत्तम।
'साधना' हेतु सर्व-प्रथम स्नान आदि के बाद यथा-शक्ति (कम-से-कम १०८ बार) "ॐ ह्रीं सूर्याय नमः" मन्त्र का जप करें।
फिर 'पूहा-स्थान' में कुल-देवताओं का पूजन कर भगवती श्रीमहा-लक्ष्मी के चित्र या मूर्त्ति का पूजन करे। पूजन में 'कुंकुम' महत्त्वपूर्ण है, इसे अवश्य चढ़ाए।
पूजन के पश्चात् माँ की कृपा-प्राप्ति हेतु मन-ही-मन 'संकल्प करे। फिर विश्व-विख्यात "श्री-सूक्त" का १५ बार पाठ करे। इस प्रकार 'तीन मास' उपासना करे। बाद में, नित्य एक बार पाठ करे। विशेष पर्वो पर भगवती का सहस्त्र-नामावली से सांय-काल 'कुंकुमार्चन' करे। अनुष्ठान काल में ही अद्भुत परिणाम दिखाई देते हैं। अनुष्ठान पूरा होने पर "भाग्योदय" होता है।

।।श्री सूक्त।।

ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।
तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।
अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।
उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे।।
क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।
गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।
कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।

तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

सुख-शान्ति-दायक महा-लक्ष्मी महा-मन्त्र प्रयोग

सुख-शान्ति-दायक महा-लक्ष्मी महा-मन्त्र प्रयोग

विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीपञ्च-दश-ऋचस्य श्री-सूक्तस्य श्रीआनन्द-कर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषयः, अनुष्टुप्-वृहति-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दांसि, श्रीमहालक्ष्मी देवताः, श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे राज-वश्यार्थे सर्व-स्त्री-पुरुष-वश्यार्थे महा-मन्त्र-जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः-
श्रीआनन्द-कर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषिभ्यो नमः शिरसि। अनुष्टुप्-वृहति-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः मुखे। श्रीमहालक्ष्मी देवताय नमः हृदि। श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे राज-वश्यार्थे सर्व-स्त्री-पुरुष-वश्यार्थे महा-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

कर-न्यासः-
ॐ हिरण्मय्यै अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ चन्द्रायै तर्जनीभ्यां स्वाहा। ॐ रजत-स्त्रजायै मध्यमाभ्यां वषट्। ॐ हिरण्य-स्त्रजायै अनामिकाभ्यां हुं। ॐ हिरण्य-स्त्रक्षायै कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। ॐ हिरण्य-वर्णायै कर-तल-करपृष्ठाभ्यां फट्।

अंग-न्यासः-
ॐ हिरण्मय्यै नमः हृदयाय नमः। ॐ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा। ॐ रजत-स्त्रजायै नमः शिखायै वषट्। ॐ हिरण्य-स्त्रजायै नमः कवचाय हुं। ॐ हिरण्य-स्त्रक्षायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट्।

ध्यानः-
ॐ अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैर्भवतु-
भुवन-माता सततं श्रीः श्रियै नः।।

मानस-पूजनः-
ॐ लं पृथ्वी तत्त्वात्वकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ हं आकाश तत्त्वात्वकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ यं वायु तत्त्वात्वकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये घ्रापयामि नमः।
ॐ रं अग्नि तत्त्वात्वकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये दर्शयामि नमः।
ॐ वं जल तत्त्वात्वकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये निवेदयामि नमः।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्वकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।

।।महा-मन्त्र।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।१
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।४
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्ति वृद्धिं ददातु मे।।७
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।८
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।।९
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।११
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१३
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१४
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।१५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।

।।स्तुति-पाठ।।
।।ॐ नमो नमः।।
पद्मानने पद्मिनि पद्म-हस्ते पद्म-प्रिये पद्म-दलायताक्षि।
विश्वे-प्रिये विष्णु-मनोनुकूले, त्वत्-पाद-पद्मं मयि सन्निधत्स्व।।

पद्मानने पद्म-उरु, पद्माक्षी पद्म-सम्भवे।
त्वन्मा भजस्व पद्माक्षि, येन सौख्यं लभाम्यहम्।।

अश्व-दायि च गो-दायि, धनदायै महा-धने।
धनं मे जुषतां देवि, सर्व-कामांश्च देहि मे।।

पुत्र-पौत्र-धन-धान्यं, हस्त्यश्वादि-गवे रथम्।
प्रजानां भवति मातः, अयुष्मन्तं करोतु माम्।।

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रा वृहस्पतिर्वरुणो धनमश्नुते।।

वैनतेय सोमं पिब, सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो, मह्मं ददातु सोमिनि।।

न क्रोधो न च मात्सर्यं, न लोभो नाशुभा मतीः।
भवन्ती कृत-पुण्यानां, भक्तानां श्री-सूक्तं जपेत्।।

विधिः-
उक्त महा-मन्त्र के तीन पाठ नित्य करे। 'पाठ' के बाद कमल के श्वेत फूल, तिल, मधु, घी, शक्कर, बेल-गूदा मिलाकर बेल की लकड़ी से नित्य १०८ बार हवन करे। ऐसा ६८ दिन करे। इससे मन-वाञ्छित धन प्राप्त होता है।
हवन-मन्त्रः- "ॐ श्रीं ह्रीं महा-लक्ष्म्यै सर्वाभीष्ट सिद्धिदायै स्वाहा।"

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

लक्ष्मीकवच

श्रीमधुसूदन उवाच
गृहाण कवचं शक्र सर्वदुःखविनाशनम्।
परमैश्वर्यजनकं सर्वशत्रुविमर्दनम्।।
ब्रह्मणे च पुरा दत्तं संसारे च जलप्लुते।
यद् धृत्वा जगतां श्रेष्ठः सर्वैश्वर्ययुतो विधिः।।
बभूवुर्मनवः सर्वे सर्वैश्वर्ययुतो यतः।
सर्वैश्वर्यप्रदस्यास्य कवचस्य ऋषिर्विधि।।
पङ्क्तिश्छन्दश्च सा देवी स्वयं पद्मालया सुर।
सिद्धैश्वर्यजपेष्वेव विनियोगः प्रकीर्तित।।
यद् धृत्वा कवचं लोकः सर्वत्र विजयी भवेत्।।
।।मूल कवच पाठ।।
मस्तकं पातु मे पद्मा कण्ठं पातु हरिप्रिया।
नासिकां पातु मे लक्ष्मीः कमला पातु लोचनम्।।
केशान् केशवकान्ता च कपालं कमलालया।
जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं सम्पत्प्रदा सदा।।
ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।
ॐ श्रीं पद्मालयायै स्वाहा वक्षः सदावतु।।
पातु श्रीर्मम कंकालं बाहुयुग्मं च ते नमः।।
ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पादौ पातु मे संततं चिरम्।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।
ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा सर्वांगं पातु मे सदा।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मां पातु सर्वतः।।
।।फलश्रुति।।
इति ते कथितं वत्स सर्वसम्पत्करं परम्। सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम्।।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं शरयेत्तु यः। कण्ठे वा दक्षिणे बांहौ स सर्वविजयी भवेत्।।
महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन। तस्य छायेव सततं सा च जन्मनि जन्मनि।।
इदं कवचमज्ञात्वा भजेल्लक्ष्मीं सुमन्दधीः। शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः।।
।।इति श्रीब्रह्मवैवर्ते इन्द्रं प्रति हरिणोपदिष्टं लक्ष्मीकवचं।।
(गणपतिखण्ड २२।५-१७)
भावार्थः-
श्रीमधुसूदन बोले- इन्द्र, (लक्ष्मी-प्राप्ति के लिये) तुम लक्ष्मीकवच ग्रहण करो। यह समस्त दुःखों का विनाशक, परम ऐश्वर्य का उत्पादक और सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाला है। पूर्वकाल में जब सारा संसार जलमग्न हो गया था, उस समय मैनें इसे ब्रह्मा को दिया था। जिसे धारण करके ब्रह्मा त्रिलोकी में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के भागी हुए थे।
देवराज, इस सर्वैश्वर्यप्रद कवच के ब्रह्मा ऋषि हैं, पङ्क्ति छन्द है, स्वयं पद्मालया लक्ष्मी देवी है और सिद्धैश्वर्य के जपों में इसका विनियोग कहा गया है। इस कवच के धारण करने से लोग सर्वत्र विजयी होते हैं।
पद्मा मेरे मस्तक की रक्षा करें। हरिप्रिया कण्ठ की रक्षा करें। लक्ष्मी नासिका की रक्षा करें। कमला नेत्र की रक्षा करें। केशवकान्ता केशों की, कमलालया कपाल की, जगज्जननी दोनों कपोलों की और सम्पत्प्रदा सदा स्कन्ध की रक्षा करें। "ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा" मेरे पृष्ठं भाग का सदा पालन करें। "ॐ श्रीं पद्मालयायै स्वाहा" वक्षःस्थल को सदा सुरक्षित रखे। श्री देवी को नमस्कार है वे मेरे कंकालं तथा दोनों भुजाओं को बचावे। "ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः" चिरकाल तक मेरे पैरों का पालन करें। "ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा" नितम्ब भाग की रक्षा करें। "ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा" मेरे सर्वांग की सदा रक्षा करे। "ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा" सब ओर से सदा मेरा पालन करे।
वत्स, इस प्रकार मैंने तुमसे इस सर्वैश्वर्यप्रद नामक परमोत्कृष्ट कवच का वर्णन कर दिया। यह परम अद्भुत कवच सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाला है। जो मनुष्य विधिपूर्वक गुरु की अर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह सबको जीतने वाला हो जाता है। महालक्ष्मी कभी उसके घर का त्याग नहीं करती; बल्कि प्रत्येक जन्म में छाया की भाँति सदा उसके साथ लगी रहती है। जो मन्दबुद्धि इस कवच को बिना जाने ही लक्ष्मी की भक्ति करता है, उसे एक करोड़ जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

विद्या-प्राप्ति-प्रयोग

विद्या-प्राप्ति-प्रयोग
१॰ "ॐ ह्रीं क्लीं वद-वद वाग्वादिनी-भगवती-सरस्वति, मम जिह्वाग्रे वासं कुरु कुरु स्वाहा।"
२॰ "ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वाग्वादिनी-देवी सरस्वति, मम जिह्वाग्रे वासं कुरु कुरु स्वाहा।"

विधिः- प्रति-दिन प्रातःकाल उक्त मन्त्र का १०८ बार जप करे। बालकों को छोटी उम्र से इस मन्त्र का जप कराए। परिक्षा, नौकरी में तो इस मन्त्र के जप के द्वारा सफलता प्राप्त होती ही है, साथ ही नेतृत्व के गुण भी उत्पन्न होते हैं और समाज में प्रतिष्ठा एवं यश की प्राप्ति होती है। मन्त्र जप के समय श्वेत-वस्त्र, माला व आसन का प्रयोग करना चाहिए।
मन्त्र के जप के साथ-साथ 'सरस्वती-चूर्ण' का भी प्रयोग करे। 'सरस्वती-चुर्ण' के लिए आठ जड़ी-बूटियाँ- १॰ गुडची, २॰ अपामार्ग, ३॰ वायविडंग, ४॰ शंख-पुष्पी, ५॰ बच, ६॰ सोंठ, ७॰ शतावरी और ८॰ ब्राह्मी को पंसारी के यहाँ से समान भाग में लेकर चूर्ण बनाएँ। चूर्ण बनाते समय उक्त मन्त्र का स्मरण करता रहे। फिर इस अभिमन्त्रित चूर्ण का नित्य सेवन करे। चूर्ण के साथ समान मात्रा में गो-घृत एवं मिश्री भी लेवे। 'चूर्ण-सेवन' के बाद यथा-शक्ति गो-दुग्ध का पान करे। छः मास तक ऐसा करने से बालकों की बुद्धि निश्चित रुप में तीव्र होती है।

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

हनुमत्सहस्त्र नामावली

हनुमत्सहस्त्र नामावली
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीहनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः हनुमान देवता, अनुष्टुप छन्द, ह्रां बीजं श्रीं शक्ति, श्रीहनुमत्प्रीत्यर्थं-तद्सहस्त्रनामभिरमुकसंख्यार्थ पुष्पादिद्रव्य समर्पणे विनियोगः।

ध्यानः-
ध्यायेद् बालदिवाकर-द्युतिनिभ देवारिदर्पापहं
देवेन्द्रमुख-प्रशा्तयकसं देदीप्यमान रुचा।
सुग्रीवादिसमतवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम्।।
उद्यदादित्यसंकाशमुदारभुजविक्रमम्।
कन्दर्पकोटिलावण्य सर्वविद्याविशारदम्।।
श्रीरामहृदयानन्दं भक्तकल्पमहीरुहम्।
अभयं वरदं दोर्म्मा चिन्तयेन्मारुतात्मजम्।।

ॐ हनुमते नमः
ॐ श्री प्रदाय नमः
ॐ वायु पुत्राय नमः
ॐ रुद्राय नमः
ॐ अनघाय नमः
ॐ अजराय नमः
ॐ अमृत्यवे नमः
ॐ वीरवीराय नमः
ॐ ग्रामावासाय नमः
ॐ जनाश्रयाय नमः
ॐ धनदाय नमः
ॐ निर्गुणाय नमः
ॐ अकायाय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ निधिपतये नमः
ॐ मुनये नमः
ॐ पिंगाक्षाय नमः
ॐ वरदाय नमः
ॐ वाग्मीने नमः ।
ॐ सीता-शोक-विनाशाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ शर्वाय नमः
ॐ पराय नमः
ॐ अव्यक्ताय नमः
ॐ व्यक्ताव्यक्ताय नमः
ॐ रसा-धराय नमः
ॐ पिंग-केशाय नमः
ॐ पिंग-रोमम्णे नमः ।
ॐ श्रुति-गम्याय नमः
ॐ सनातनाय नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ भगवते नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ विश्व-हेतवे नमः
ॐ निरामयाय नमः
ॐ आरोग्यकर्त्रे नमः ।
ॐ विश्वेशाय नमः
ॐ विश्वनाथाय नमः
ॐ हरीश्वराय नमः
ॐ भर्गाय नमः
ॐ रामाय नमः
ॐ राम-भक्ताय नमः
ॐ कल्याणाय नमः
ॐ प्रकृति-स्थिराय नमः
ॐ विश्वम्भराय नमः
ॐ विश्वमूर्तये नमः
ॐ विश्वाकाराय नमः
ॐ विश्वदाय नमः
ॐ विश्वात्मने नमः
ॐ विश्वसेव्याय नमः
ॐ विश्वाय नमः
ॐ विश्वराय नमः
ॐ रवये नमः
ॐ विश्व-चेष्टाय नमः
ॐ विश्व-गम्याय नमः
ॐ विश्व-ध्येयाय नमः
ॐ कला-धराय नमः
ॐ प्लवंगमाय नमः
ॐ कपि-श्रेष्टाय नमः
ॐ ज्येष्ठाय नमः ।
ॐ विद्यावते नमः
ॐ वनेचराय नमः
ॐ बालाय नमः
ॐ वृद्धाय नमः
ॐ यूने नमः ।
ॐ तत्त्वाय नमः
ॐ तत्त्व-गम्याय नमः
ॐ सख्ये नमः
ॐ अजाय नमः
ॐ अन्जना-सूनवे नमः
ॐ अव्यग्राय नमः
ॐ ग्राम-ख्याताय नमः
ॐ धरा-धराय नमः
ॐ भूर्लोकाय नमः
ॐ भुवर्लोकाय नमः ।
ॐ स्वर्लोकाय नमः
ॐ महर्लोकाय नमः
ॐ जनलोकय नमः
ॐ तपसे नमः
ॐ अव्ययाय नमः
ॐ सत्ययाय नमः
ॐ ओंकार-गम्याय नमः
ॐ प्रणवाय नमः
ॐ व्यापकाय नमः
ॐ अमलाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ धर्म-प्रतिष्ठात्रे नमः ।
ॐ रामेष्टाय नमः
ॐ फाल्गुण-प्रियाय नमः
ॐ गोष्पदिने नमः
ॐ कृत-वारीशाय नमः
ॐ पूर्ण-कामाय नमः
ॐ धराधिपाय नमः
ॐ रक्षोघ्नाय नमः
ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः
ॐ शरणागत-वत्सलाय नमः
ॐ जानकी-प्राण-दात्रे नमः
ॐ रक्षः-प्राणहारकाय नमः
ॐ पूर्णाय नमः ।
ॐ सत्याय नमः १००
ॐ पीतवाससे नमः ।
ॐ दिवाकर-समप्रभाय नमः
ॐ देवोद्यान-विहारीणे नमः ।
ॐ देवता-भय-भञ्जनाय नमः ।
ॐ भक्तोदयाय नमः ।
ॐ भक्त-लब्धाय नमः ।
ॐ भक्त-पालन-तत्पराय नमः ।
ॐ द्रोणहर्षाय नमः ।
ॐ शक्तिनेत्राय नमः ।
ॐ शक्तये नमः
ॐ राक्षस-मारकाय नमः
ॐ अक्षघ्नाय नमः
ॐ राम-दूताय नमः
ॐ शाकिनी-जीव-हारकाय नमः
ॐ बुबुकार-हतारातये नमः
ॐ गर्वाय नमः
ॐ पर्वत-मर्दनाय नमः
ॐ हेतवे नमः
ॐ अहेतवे नमः
ॐ प्रांशवे नमः
ॐ विश्वभर्ताय नमः ।
ॐ जगद्गुरवे नमः
ॐ जगन्नेत्रे नमः ।
ॐ जगन्नथाय नमः
ॐ जगदीशाय नमः
ॐ जनेश्वराय नमः
ॐ जगद्धिताय नमः ।
ॐ हरये नमः
ॐ श्रीशाय नमः
ॐ गरुडस्मयभंजनाय नमः
ॐ पार्थ-ध्वजाय नमः
ॐ वायु-पुत्राय नमः
ॐ अमित-पुच्छाय नमः
ॐ अमित-विक्रमाय नमः
ॐ ब्रह्म-पुच्छाय नमः
ॐ परब्रह्म-पुच्छाय नमः
ॐ रामेष्ट-कारकाय नमः
ॐ सुग्रीवादि-युताय नमः
ॐ ज्ञानिने नमः ।
ॐ वानराय नमः
ॐ वानरेश्वराय नमः
ॐ कल्पस्थायिने नमः ।
ॐ चिरंजीविने नमः ।
ॐ तपनाय नमः
ॐ सदा-शिवाय नमः
ॐ सन्नताय नमः
ॐ सद्गते नमः
ॐ भुक्ति-मुक्तिदाय नमः
ॐ कीर्ति-दायकाय नमः
ॐ कीर्तये नमः
ॐ कीर्ति-प्रदाय नमः
ॐ समुद्राय नमः
ॐ श्रीप्रदाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ भक्तोदयाय नमः ।
ॐ भक्तगम्याय नमः ।
ॐ भक्त-भाग्य-प्रदायकाय नमः ।
ॐ उदधिक्रमणाय नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ संसार-भय-नाशनाय नमः
ॐ वार्धि-बंधनकृदाय नमः ।
ॐ विश्व-जेताय नमः ।
ॐ विश्व-प्रतिष्ठिताय नमः
ॐ लंकारये नमः
ॐ कालपुरुषाय नमः
ॐ लंकेश-गृह- भंजनाय नमः
ॐ भूतावासाय नमः
ॐ वासुदेवाय नमः
ॐ वसवे नमः
ॐ त्रिभुवनेश्वराय नमः
ॐ श्रीराम-रुपाय नमः
ॐ कृष्णस्तवे नमः
ॐ लंका-प्रासाद-भंजकाय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ कृष्ण-स्तुताय नमः
ॐ शान्ताय नमः
ॐ शान्तिदाय नमः
ॐ विश्वपावनाय नमः
ॐ विश्व-भोक्त्रे नमः ।
ॐ मारिघ्नाय नमः
ॐ ब्रह्मचारिणे नमः ।
ॐ जितेन्द्रियाय नमः
ॐ ऊर्ध्वगाय नमः
ॐ लान्गुलिने नमः ।
ॐ मालिने नमः।
ॐ लान्गूला-हत-राक्षसाय नमः
ॐ समीर-तनुजाय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ वीर-ताराय नमः
ॐ जय-प्रदाय नमः
ॐ जगन्मन्गलदाय नमः
ॐ पुण्याय नमः
ॐ पुण्य-श्रवण-कीर्तनाय नमः
ॐ पुण्यकीर्तये नमः
ॐ पुण्य-गीतये नमः
ॐ जगत्पावन-पावनाय नमः
ॐ देवेशाय नमः
ॐ जितमाराय नमः
ॐ राम-भक्ति-विधायकाय नमः
ॐ ध्यात्रे नमः।
ॐ ध्येयाय नमः
ॐ लयाय नमः
ॐ साक्षिणे नमः ।
ॐ चेत्रे नमः।
ॐ चैतन्य-विग्रहाय नमः
ॐ ज्ञानदाय नमः
ॐ प्राणदाय नमः
ॐ प्राणाय नमः
ॐ जगत्प्राणाय नमः
ॐ समीरणाय नमः
ॐ विभीषण-प्रियाय नमः
ॐ शूराय नमः
ॐ पिप्पलाश्रयाय नमः
ॐ सिद्धिदाय नमः
ॐ सिद्धाय नमः
ॐ सिद्धाश्रयाय नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ महोक्षाय नमः ।
ॐ काल-जान्तकाय नमः
ॐ लंकेश-निधन-स्थायिने नमः
ॐ लंका-दाहकाय नमः ।
ॐ ईश्वराय नमः
ॐ चन्द्र-सूर्य-अग्नि-नेत्राय नमः
ॐ कालाग्ने नमः
ॐ प्रलयान्तकाय नमः
ॐ कपिलाय नमः
ॐ कपीशाय नमः
ॐ पुण्यराशये नमः
ॐ द्वादश राशिगाय नमः
ॐ सर्वाश्रयाय नमः
ॐ अप्रमेयत्माय नमः ।
ॐ रेवत्यादि-निवारकाय नमः
ॐ लक्ष्मण-प्राणदात्रे नमः ।
ॐ सीता-जीवन-हेतुकाय नमः
ॐ राम-ध्येयाय नमः
ॐ हृषीकेशाय नमः
ॐ विष्णु-भक्ताय नमः
ॐ जटिने नमः
ॐ बलिने नमः
ॐ देवारिदर्पघ्ने नमः
ॐ होत्रे नमः
ॐ कर्त्रे नमः
ॐ धार्त्रे नमः
ॐ जगत्प्रभवे नमः
ॐ नगर-ग्राम-पालाय नमः
ॐ शुद्धाय नमः
ॐ बुद्धाय नमः
ॐ निरन्तराय नमः
ॐ निरंजनाय नमः
ॐ निर्विकल्पाय नमः
ॐ गुणातीताय नमः
ॐ भयंकराय नमः
ॐ हनुमते नमः ।
ॐ दुराराध्याय नमः
ॐ तपस्साध्याय नमः
ॐ महेश्वराय नमः
ॐ जानकी-घन-शोकोत्थतापहर्त्रे नमः ।
ॐ परात्पराय नमः
ॐ वाङ्मयाय नमः
ॐ सद-सद्रूपाय नमः
ॐ कारणाय नमः
ॐ प्रकृतेः-पराय नमः
ॐ भाग्यदाय नमः
ॐ निर्मलाय नमः
ॐ नेत्रे नमः
ॐ पुच्छ-लंका-विदाहकाय नमः
ॐ पुच्छ-बद्धाय नमः
ॐ यातुधानाय नमः
ॐ यातुधान-रिपुप्रियाय नमः
ॐ छायापहारिणे नमः
ॐ भूतेशाय नमः
ॐ लोकेशाय नमः
ॐ सद्गति-प्रदाय नमः
ॐ प्लवंगमेश्वराय नमः
ॐ क्रोधाय नमः
ॐ क्रोध-संरक्तलोचनाय नमः
ॐ क्रोध-हर्त्रे नमः
ॐ ताप-हर्त्रे नमः
ॐ भक्ताऽभय-वरप्रदाय नमः
ॐ वर-प्रदाय नमः
ॐ भक्तानुकंपिने नमः
ॐ विश्वेशाय नमः
ॐ पुरु-हूताय नमः
ॐ पुरंदराय नमः
ॐ अग्निने नमः
ॐ विभावसवे नमः
ॐ भास्वते नमः
ॐ यमाय नमः
ॐ निष्कृतिरेवचाय नमः
ॐ वरुणाय नमः
ॐ वायु-गति-मानाय नमः
ॐ वायवे नमः
ॐ कौबेराय नमः
ॐ ईश्वराय नमः
ॐ रवये नमः
ॐ चन्द्राय नमः
ॐ कुजाय नमः
ॐ सौम्याय नमः
ॐ गुरवे नमः
ॐ काव्याय नमः
ॐ शनैश्वराय नमः
ॐ राहवे नमः
ॐ केतवे नमः

ॐ मरुते नमः
ॐ धात्रे नमः
ॐ धर्त्रे नमः
ॐ हर्त्रे नमः
ॐ समीरजाय नमः
ॐ मशकीकृत-देवारये नमः
ॐ दैत्यारये नमः
ॐ मधुसूदनाय नमः
ॐ कामाय नमः
ॐ कपये नमः
ॐ कामपालाय नमः
ॐ कपिलाय नमः
ॐ विश्व जीवनाय नमः
ॐ भागीरथी-पदांभोजाय नमः
ॐ सेतुबंध-विशारदाय नमः
ॐ स्वाहा-काराय नमः
ॐ स्वधा-काराय नमः
ॐ हविषे नमः
ॐ कव्याय नमः
ॐ हव्यवाहकाय नमः
ॐ प्रकाशाय नमः
ॐ स्वप्रकाशाय नमः
ॐ महावीराय नमः
ॐ लघवे नमः
ॐ अमित-विक्रमाय नमः
ॐ प्रडीनोड्डीनगतिमानाय नमः
ॐ सद्गतये नमः
ॐ पुरुषोत्तमाय नमः
ॐ जगदात्मने नमः
ॐ जगद्योनये नमः
ॐ जगदंताय नमः
ॐ अनंतकाय नमः
ॐ विपात्मने नमः
ॐ निष्कलंकाय नमः
ॐ महते नमः
ॐ महदहंकृतये नमः
ॐ खाय नमः
ॐ वायवे नमः
ॐ पृथिव्यै नमः
ॐ आपोभ्य नमः
ॐ वह्नये नमः
ॐ दिक्पालाय नमः
ॐ एकस्थाय नमः
ॐ क्षेत्रज्ञाय नमः
ॐ क्षेत्र-पालाय नमः
ॐ पल्वली-कृत-सागराय नमः
ॐ हिरण्मयाय नमः
ॐ पुराणाय नमः
ॐ खेचराय नमः
ॐ भुचराय नमः
ॐ मनसे नमः
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः
ॐ सूत्राम्णे नमः
ॐ राज-राजाय नमः
ॐ विशांपतये नमः
ॐ वेदांत-वेद्याय नमः
ॐ उद्गीथाय नमः
ॐ वेदवेदांग- पारगाय नमः
ॐ प्रति-ग्राम-स्थिताय नमः
ॐ साध्याय नमः
ॐ स्फूर्ति दात्रे नमः
ॐ गुणाकराय नमः
ॐ नक्षत्र-मालिने नमः
ॐ भूतात्मने नमः
ॐ सुरभये नमः
ॐ कल्प-पादपाय नमः
ॐ चिन्ता-मणये नमः
ॐ गुणनिधये नमः
ॐ प्रजापतये नमः
ॐ अनुत्तमाय नमः
ॐ पुण्यश्लोकाय नमः
ॐ पुरारातये नमः
ॐ ज्योतिष्मते नमः
ॐ शर्वरीपतये नमः
ॐ किलिकिल्यारवत्रस्त-प्रेत-भूत-पिशाचकाय नमः
ॐ ऋणत्रय-हराय नमः
ॐ सूक्ष्माय नमः
ॐ स्थूलाय नमः
ॐ सर्वगतये नमः
ॐ पुंसे नमः
ॐ अपस्मार-हराय नमः
ॐ स्मर्त्रे नमः
ॐ श्रुतये नमः
ॐ गाथायै नमः
ॐ स्मृतये नमः
ॐ मनवे नमः
ॐ स्वर्ग-द्वाराय नमः
ॐ प्रजा-द्वाराय नमः
ॐ मोक्ष-द्वाराय नमः
ॐ यतीश्वराय नमः
ॐ नाद-रूपाय नमः
ॐ पर-ब्रह्मणे नमः
ॐ ब्रह्मणे नमः
ॐ ब्रह्म-पुरातनाय नमः
ॐ एकाय नमः
ॐ अनेकाय नमः
ॐ जनाय नमः
ॐ शुक्लाय नमः
ॐ स्वयज्योतिषे नमः
ॐ अनाकुलाय नमः
ॐ ज्योति-ज्योतिषे नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ सात्त्विकाय नमः
ॐ राजसत्तमाय नमः
ॐ तमसे नमः
ॐ तमो-हर्त्रे नमः
ॐ निरालंबाय नमः
ॐ निराकाराय नमः
ॐ गुणाकराय नमः
ॐ गुणाश्रयाय नमः
ॐ गुणमयाय नमः
ॐ बृहत्कायाय नमः
ॐ बृहद्यशसे नमः
ॐ बृहद्धनुषे नमः
ॐ बृहत्पादाय नमः
ॐ बृहन्नमूर्ध्ने नमः
ॐ बृहत्स्वनाय नमः
ॐ बृहत्कर्णाय नमः
ॐ बृहन्नासाय नमः
ॐ बृहन्नेत्राय नमः
ॐ बृहत्गलाय नमः
ॐ बृहध्यन्त्राय नमः
ॐ बृहत्चेष्टाय नमः
ॐ बृहत्पुच्छाय नमः
ॐ बृहत्कराय नमः
ॐ बृहत्गतये नमः
ॐ बृहत्सेव्याय नमः
ॐ बृहल्लोक-फलप्रदाय नमः
ॐ बृहच्छक्तये नमः
ॐ बृहद्वांछा-फलदाय नमः
ॐ बृहदीश्वराय नमः
ॐ बृहल्लोकनुताय नमः
ॐ द्रंष्टे नमः
ॐ विद्या-दात्रे नमः
ॐ जगद्गुरवे नमः
ॐ देवाचार्याय नमः
ॐ सत्य-वादिने नमः
ॐ ब्रह्म-वादिने नमः
ॐ कलाधराय नमः
ॐ सप्त-पातालगामिने नमः
ॐ मलयाचल-संश्रयाय नमः
ॐ उत्तराशास्थिताय नमः
ॐ श्रीदाय नमः
ॐ दिव्य-औषधि-वशाय नमः
ॐ खगाय नमः
ॐ शाखामृगाय नमः
ॐ कपीन्द्राय नमः
ॐ पुराणाय नमः
ॐ श्रुति-संचराय नमः
ॐ चतुराय नमः
ॐ ब्राह्मणाय नमः
ॐ योगिने नमः
ॐ योगगम्याय नमः
ॐ परात्पराय नमः
ॐ अनादये नमः
ॐ निधनाय नमः
ॐ व्यासाय नमः
ॐ वैकुण्ठाय नमः
ॐ पृथ्वी-पतये नमः
ॐ अपराजितये नमः
ॐ जितारातये नमः
ॐ सदानन्दाय नमः
ॐ ईशित्रे नमः
ॐ गोपालाय नमः
ॐ गोपतये नमः
ॐ गोप्त्रे नमः
ॐ कलये नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ परात्पराय नमः
ॐ मनोवेगिने नमः
ॐ सदा-योगिने नमः
ॐ संसार-भय-नाशनाय नमः
ॐ तत्त्व-दात्रे नमः
ॐ तत्त्वज्ञाय नमः
ॐ तत्त्वाय नमः
ॐ तत्त्व-प्रकाशाय नमः
ॐ शुद्धाय नमः
ॐ बुद्धाय नमः
ॐ नित्यमुक्ताय नमः
ॐ भक्त-राजाय नमः
ॐ जयप्रदाय नमः
ॐ प्रलयाय नमः
ॐ अमित-मायाय नमः
ॐ मायातीताय नमः
ॐ विमत्सराय नमः
ॐ माया-निर्जित-रक्षसे नमः
ॐ माया-निर्मित-विष्टपाय नमः
ॐ मायाश्रयाय नमः
ॐ निर्लेपाय नमः
ॐ माया-निर्वंचकाय नमः
ॐ सुखाय नमः
ॐ सुखिने नमः
ॐ सुखप्रदाय नमः
ॐ नागाय नमः
ॐ महेशकृत-संस्तवाय नमः
ॐ महेश्वराय नमः
ॐ सत्यसंधाय नमः
ॐ शरभाय नमः
ॐ कलि-पावनाय नमः
ॐ रसाय नमः
ॐ रसज्ञाय नमः
ॐ सम्मानाय नमः
ॐ तपस्चक्षवे नमः
ॐ भैरवाय नमः
ॐ घ्राणाय नमः
ॐ गन्धाय नमः
ॐ स्पर्शनाय नमः
ॐ स्पर्शाय नमः
ॐ अहंकारमानदाय नमः
ॐ नेति-नेति-गम्याय नमः
ॐ वैकुण्ठ-भजन-प्रियाय नमः
ॐ गिरीशाय नमः
ॐ गिरिजा-कान्ताय नमः
ॐ दूर्वाससे नमः
ॐ कवये नमः
ॐ अंगिरसे नमः
ॐ भृगुवे नमः
ॐ वसिष्ठाय नमः
ॐ च्यवनाय नमः
ॐ तुम्बुरुवे नमः
ॐ नारदाय नमः
ॐ अमलाय नमः
ॐ विश्व-क्षेत्राय नमः
ॐ विश्व-बीजाय नमः
ॐ विश्व-नेत्राय नमः
ॐ विश्वगाय नमः
ॐ याजकाय नमः
ॐ यजमानाय नमः
ॐ पावकाय नमः
ॐ पित्रे नमः
ॐ श्रद्धायै नमः
ॐ बुद्धये नमः
ॐ क्षमायै नमः
ॐ तन्त्राय नमः
ॐ मन्त्राय नमः
ॐ मन्त्रयुताय नमः
ॐ स्वराय नमः
ॐ राजेन्द्राय नमः
ॐ भूपतये नमः
ॐ रुण्ड-मालिने नमः
ॐ संसार-सारथये नमः
ॐ नित्याय नमः
ॐ संपूर्ण-कामाय नमः
ॐ भक्त कामदुधे नमः
ॐ उत्तमाय नमः
ॐ गणपाय नमः
ॐ केशवाय नमः
ॐ भ्रात्रे नमः
ॐ पित्रे नमः
ॐ मात्रे नमः
ॐ मारुतये नमः
ॐ सहस्र-शीर्षा-पुरुषाय नमः
ॐ सहस्राक्षाय नमः
ॐ सहस्रपाताय नमः
ॐ कामजिते नमः
ॐ काम-दहनाय नमः
ॐ कामाय नमः
ॐ काम्य-फल-प्रदाय नमः
ॐ मुद्रापहारिणे नमः
ॐ रक्षोघ्नाय नमः
ॐ क्षिति-भार-हराय नमः
ॐ बलाय नमः
ॐ नख-दंष्ट्रा-युधाय नमः
ॐ विष्णु-भक्ताय नमः
ॐ अभय-वर-प्रदाय नमः
ॐ दर्पघ्ने नमः
ॐ दर्पदाय नमः
ॐ इष्टाय नमः
ॐ शत-मूर्त्तये नमः
ॐ अमूर्त्तिमते नमः
ॐ महा-निधये नमः
ॐ महा-भागाय नमः
ॐ महा-भर्गाय नमः
ॐ महार्थदाय नमः
ॐ महाकाराय नमः
ॐ महा-योगिने नमः
ॐ महा-तेजसे नमः
ॐ महा-द्युतये नमः
ॐ महा-कर्मणे नमः
ॐ महा-नादाय नमः
ॐ महा-मन्त्राय नमः
ॐ महा-मतये नमः
ॐ महाशयाय नमः
ॐ महोदराय नमः
ॐ महादेवात्मकाय नमः
ॐ विभवे नमः
ॐ रुद्र-कर्मणे नमः
ॐ अकृत-कर्मणे नमः
ॐ रत्न-नाभाय नमः
ॐ कृतागमाय नमः
ॐ अम्भोधि-लंघनाय नमः
ॐ सिंहाय नमः
ॐ नित्याय नमः
ॐ धर्माय नमः
ॐ प्रमोदनाय नमः
ॐ जितामित्राय नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ सम-विजयाय नमः
ॐ वायु-वाहनाय नमः
ॐ जीव-दात्रे नमः
ॐ सहस्रांशवे नमः
ॐ मुकुन्दाय नमः
ॐ भूरि-दक्षिणाय नमः
ॐ सिद्धर्थाय नमः
ॐ सिद्धिदाय नमः
ॐ सिद्ध-संकल्पाय नमः
ॐ सिद्धि-हेतुकाय नमः
ॐ सप्त-पातालचरणाय नमः
ॐ सप्तर्षि-गण-वन्दिताय नमः
ॐ सप्ताब्धि-लंघनाय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ सप्त-द्वीपोरुमण्डलाय नमः
ॐ सप्तांग-राज्य-सुखदाय नमः
ॐ सप्त-मातृ-निशेविताय नमः
ॐ सप्त-लोकैक-मुकुटाय नमः
ॐ सप्त-होता-स्वराश्रयाय नमः
ॐ सप्तच्छन्द-निधये नमः
ॐ सप्तच्छन्दसे नमः
ॐ सप्त-जनाश्रयाय नमः
ॐ सप्त-सामोपगीताय नमः
ॐ सप्त-पातल-संश्रयाय नमः
ॐ मेधावी-कीर्तिदाय नमः
ॐ शोक-हारिणे नमः
ॐ दौर्भाग्य-नाशनाय नमः
ॐ सर्व-वश्यकराय नमः
ॐ गर्भ-दोषघ्नाय नमः
ॐ पुत्र-पौत्र-दाय नमः
ॐ प्रतिवादि-मुखस्तंभिने नमः
ॐ तुष्टचित्ताय नमः
ॐ प्रसादनाय नमः
ॐ पराभिचारशमनाय नमः
ॐ दवे नमः
ॐ खघ्नाय नमः
ॐ बंध-मोक्षदाय नमः
ॐ नव-द्वार-पुराधाराय नमः
ॐ नव-द्वार-निकेतनाय नमः
ॐ नर-नारायण-स्तुत्याय नमः
ॐ नरनाथाय नमः
ॐ महेश्वराय नमः
ॐ मेखलिने नमः
ॐ कवचिने नमः
ॐ खद्गिने नमः
ॐ भ्राजिष्णवे नमः
ॐ जिष्णुसारथये नमः
ॐ बहु-योजन-विस्तीर्ण-पुच्छाय नमः
ॐ पुच्छ-हतासुराय नमः
ॐ दुष्टग्रह-निहंत्रे नमः
ॐ पिशाच-ग्रह-घातकाय नमः
ॐ बाल-ग्रह-विनाशिने नमः
ॐ धर्माय नमः
ॐ नेता-कृपाकराय नमः
ॐ उग्रकृत्याय नमः
ॐ उग्रवेगिने नमः
ॐ उग्र-नेत्राय नमः
ॐ शत-क्रतवे नमः
ॐ शत-मन्युस्तुताय नमः
ॐ स्तुत्याय नमः
ॐ स्तुतये नमः
ॐ स्तोत्रे नमः
ॐ महा-बलाय नमः
ॐ समग्र-गुणशालिने नमः
ॐ अव्यग्राय नमः
ॐ रक्षाय नमः
ॐ विनाशकाय नमः
ॐ रक्षोघ्न-हस्ताय नमः
ॐ ब्रह्मेशाय नमः
ॐ श्रीधराय नमः
ॐ भक्त-वत्सलाय नमः
ॐ मेघ-नादाय नमः
ॐ मेघ-रूपाय नमः
ॐ मेघ-वृष्टि-निवारकाय नमः
ॐ मेघ-जीवन-हेतवे नमः
ॐ मेघ-श्यामाय नमः
ॐ परात्मकाय नमः
ॐ समीर-तनयाय नमः
ॐ बोध्-तत्त्व-विद्या-विशारदाय नमः
ॐ अमोघाय नमः
ॐ अमोघहृष्टये नमः
ॐ इष्टदाय नमः
ॐ अनिष्ट-नाशनाय नमः
ॐ अर्थाय नमः
ॐ अनर्थापहारिणे नमः
ॐ समर्थाय नमः
ॐ राम-सेवकाय नमः
ॐ अर्थिने नमः
ॐ धन्याय नमः
ॐ असुरारातये नमः
ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः
ॐ आत्मभूवे नमः
ॐ संकर्षणाय नमः
ॐ विशुद्धात्मने नमः
ॐ विद्या-राशये नमः
ॐ सुरेश्वराय नमः
ॐ अचलोद्धारकाय नमः
ॐ नित्याय नमः
ॐ सेतुकृते नमः
ॐ राम-सारथये नमः
ॐ आनन्दाय नमः
ॐ परमानन्दाय नमः
ॐ मत्स्याय नमः
ॐ कूर्माय नमः
ॐ निधये नमः
ॐ शूराय नमः
ॐ वाराहाय नमः
ॐ नारसिंहाय नमः
ॐ वामनाय नमः
ॐ जमदग्निजाय नमः
ॐ रामाय नमः
ॐ कृष्णाय नमः
ॐ शिवाय नमः
ॐ बुद्धाय नमः
ॐ कल्किने नमः
ॐ रामाश्रयाय नमः
ॐ हराय नमः
ॐ नन्दिने नमः
ॐ भृन्गिने नमः
ॐ चण्डिने नमः
ॐ गणेशाय नमः
ॐ गण-सेविताय नमः
ॐ कर्माध्यक्ष्याय नमः
ॐ सुराध्यक्षाय नमः
ॐ विश्रामाय नमः
ॐ जगतांपतये नमः
ॐ जगन्नथाय नमः
ॐ कपि-श्रेष्टाय नमः
ॐ सर्ववासाय नमः
ॐ सदाश्रयाय नमः
ॐ सुग्रीवादिस्तुताय नमः
ॐ शान्ताय नमः
ॐ सर्व-कर्मणे नमः
ॐ प्लवंगमाय नमः
ॐ नखदारितरक्षसे नमः
ॐ नख-युद्ध-विशारदाय नमः
ॐ कुशलाय नमः
ॐ सुघनाय नमः
ॐ शेषाय नमः
ॐ वासुकये नमः
ॐ तक्षकाय नमः
ॐ स्वराय नमः
ॐ स्वर्ण-वर्णाय नमः
ॐ बलाढ्याय नमः
ॐ राम-पूज्याय नमः
ॐ अघनाशनाय नमः
ॐ कैवल्य-दीपाय नमः
ॐ कैवल्याय नमः
ॐ गरुडाय नमः
ॐ पन्नगाय नमः
ॐ गुरवे नमः
ॐ क्लिक्लिरावणहतारातये नमः
ॐ गर्वाय नमः
ॐ पर्वत-भेदनाय नमः
ॐ वज्रांगाय नमः
ॐ वज्र-वेगाय नमः
ॐ भक्ताय नमः
ॐ वज्र-निवारकाय नमः
ॐ नखायुधाय नमः
ॐ मणिग्रीवाय नमः
ॐ ज्वालामालिने नमः
ॐ भास्कराय नमः
ॐ प्रौढ-प्रतापाय नमः
ॐ तपनाय नमः
ॐ भक्त-ताप-निवारकाय नमः
ॐ शरणाय नमः
ॐ जीवनाय नमः
ॐ भोक्त्रे नमः
ॐ नानाचेष्टा नमः
ॐ चंचलाय नमः
ॐ सुस्वस्थाय नमः
ॐ अस्वास्थ्यघ्ने नमः
ॐ दवे नमः
ॐ खशमनाय नमः
ॐ पवनात्मजाय नमः
ॐ पावनाय नमः
ॐ पवनाय नमः
ॐ कान्ताय नमः
ॐ भक्तागाय नमः
ॐ सहनाय नमः
ॐ बलाय नमः
ॐ मेघनाद-रिपवे नमः
ॐ मेघनाद-संहृतराक्षसाय नमः
ॐ क्षराय नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ विनीतात्मा वानरेशाय नमः
ॐ सतांगतये नमः
ॐ शिति-कण्ठाय नमः
ॐ श्री-कण्ठाय नमः
ॐ सहायाय नमः
ॐ सहनायकाय नमः
ॐ अस्थलाय नमः
ॐ अनणवे नमः
ॐ भर्गाय नमः
ॐ देवाय नमः
ॐ संसृतिनाशनाय नमः
ॐ अध्यात्म-विद्याय नमः
ॐ साराय नमः
ॐ अध्यात्म-कुशलाय नमः
ॐ सुधिये नमः
ॐ अकल्मषाय नमः
ॐ सत्य-हेतवे नमः
ॐ सत्यगाय नमः
ॐ सत्य-गोचराय नमः
ॐ सत्य-गर्भाय नमः
ॐ सत्य-रूपाय नमः
ॐ सत्याय नमः
ॐ सत्य-पराक्रमाय नमः
ॐ अन्जना-प्राणलिंगाय नमः
ॐ वायु-वंशोद्भवाय नमः
ॐ शुभाय नमः
ॐ भद्र-रूपाय नमः
ॐ रुद्र-रूपाय नमः
ॐ सुरूपस्चित्र-रूपधृताय नमः
ॐ मैनाक-वंदिताय नमः
ॐ सूक्ष्म-दर्शनाय नमः
ॐ विजयाय नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ क्रान्त-दिग्मण्डलाय नमः
ॐ रुद्राय नमः
ॐ प्रकटीकृत-विक्रमाय नमः
ॐ कम्बु-कण्ठाय नमः
ॐ प्रसन्नात्मने नमः
ॐ ह्रस्व-नासाय नमः
ॐ वृकोदराय नमः
ॐ लंबोष्टाय नमः
ॐ कुण्डलिने नमः
ॐ चित्र-मालिने नमः
ॐ योग-विदावराय नमः
ॐ वराय नमः
ॐ विपश्चिताय नमः
ॐ कविरानन्द-विग्रहाय नमः
ॐ अनन्य-शासनाय नमः
ॐ फल्गुणीसूनुरव्यग्राय नमः
ॐ योगात्मने नमः
ॐ योगतत्पराय नमः
ॐ योग-वेद्याय नमः
ॐ योग-कर्त्रे नमः
ॐ योग-योनये नमः
ॐ दिगंबराय नमः
ॐ अकारादि-क्षकारान्ताय नमः
ॐ वर्ण-निर्मिताय नमः
ॐ विग्रहाय नमः
ॐ उलूखल-मुखाय नमः
ॐ सिंहाय नमः
ॐ संस्तुताय नमः
ॐ परमेश्वराय नमः
ॐ श्लिष्ट-जंघाय नमः
ॐ श्लिष्ट-जानवे नमः
ॐ श्लिष्ट-पाणये नमः
ॐ शिखा-धराय नमः
ॐ सुशर्मणे नमः
ॐ अमित-शर्मणे नमः
ॐ नारायण-परायणाय नमः
ॐ जिष्णवे नमः
ॐ भविष्णवे नमः
ॐ रोचिष्णवे नमः
ॐ ग्रसिष्णवे नमः
ॐ स्थाणुरेवाय नमः
ॐ हरये नमः
ॐ रुद्रानुकृते नमः
ॐ वृक्ष-कंपनाय नमः
ॐ भूमि-कंपनाय नमः
ॐ गुण-प्रवाहाय नमः
ॐ सूत्रात्मने नमः
ॐ वीत-रागाय नमः
ॐ स्तुति-प्रियाय नमः
ॐ नाग-कन्या-भय-ध्वंसिने नमः
ॐ ऋतु-पर्णाय नमः
ॐ कपाल-भृताय नमः
ॐ अनाकुलाय नमः
ॐ भवोपायाय नमः
ॐ अनपायाय नमः
ॐ वेद-पारगाय नमः
ॐ अक्षराय नमः
ॐ पुरुषाय नमः
ॐ लोक-नाथाय नमः
ॐ रक्ष-प्रभवे नमः
ॐ दृडाय नमः
ॐ अष्टांग-योगाय नमः
ॐ फलभुवे नमः
ॐ सत्य-संधाय नमः
ॐ पुरुष्टुताय नमः
ॐ श्मशान-स्थान-निलयाय नमः
ॐ प्रेत-विद्रावणाय नमः
ॐ क्षमाय नमः
ॐ पंचाक्षर-पराय नमः
ॐ पञ्च-मातृकाय नमः
ॐ रंजनाय नमः
ॐ ध्वजाय नमः
ॐ योगिने नमः
ॐ वृन्द-वंद्याय नमः
ॐ शत्रुघ्नाय नमः
ॐ अनन्त-विक्रमाय नमः
ॐ ब्रह्मचारिणे नमः
ॐ इन्द्रिय-रिपवे नमः
ॐ धृतदण्डाय नमः
ॐ दशात्मकाय नमः
ॐ अप्रपंचाय नमः
ॐ सदाचाराय नमः
ॐ शूर-सेना-विदारकाय नमः
ॐ वृद्धाय नमः
ॐ प्रमोदाय नमः
ॐ आनंदाय नमः
ॐ सप्त-जिह्व-पतिर्धराय नमः
ॐ नव-द्वार-पुराधाराय नमः
ॐ प्रत्यग्राय नमः
ॐ सामगायकाय नमः
ॐ षट्चक्रधाम्ने नमः
ॐ स्वर्लोकाय नमः
ॐ भयहृते नमः
ॐ मानदाय नमः
ॐ अमदाय नमः
ॐ सर्व-वश्यकराय नमः
ॐ शक्तिरनन्ताय नमः
ॐ अनन्त-मंगलाय नमः
ॐ अष्ट-मूर्तिर्धराय नमः
ॐ नेत्रे नमः
ॐ विरूपाय नमः
ॐ स्वर-सुन्दराय नमः
ॐ धूम-केतवे नमः
ॐ महा-केतवे नमः
ॐ सत्य-केतवे नमः
ॐ महारथाय नमः
ॐ नन्दि-प्रियाय नमः
ॐ स्वतन्त्राय नमः
ॐ मेखलिने नमः
ॐ समर-प्रियाय नमः
ॐ लोहांगाय नमः
ॐ सर्वविदे नमः
ॐ धन्विने नमः
ॐ षट्कलाय नमः
ॐ शर्वाय नमः
ॐ ईश्वराय नमः
ॐ फल-भुजे नमः
ॐ फल-हस्ताय नमः
ॐ सर्व-कर्म-फलप्रदाय नमः
ॐ धर्माध्यक्षाय नमः
ॐ धर्म-फलाय नमः
ॐ धर्माय नमः
ॐ धर्म-प्रदाय नमः
ॐ अर्थदाय नमः
ॐ पं-विंशति-तत्त्वज्ञाय नमः
ॐ तारक-ब्रह्म-तत्पराय नमः
ॐ त्रि-मार्गवसतये नमः
ॐ भीमाये नमः
ॐ सर्व-दुष्ट-निबर्हणाय नमः
ॐ ऊर्जस्वानाय नमः
ॐ निष्कलाय नमः
ॐ मौलिने नमः
ॐ गर्जाय नमः
ॐ निशाचराय नमः
ॐ रक्तांबर-धराय नमः
ॐ रक्ताय नमः
ॐ रक्त-माला-विभूषणाय नमः
ॐ वन-मालिने नमः
ॐ शुभांगांय नमः
ॐ श्वेताय नमः
ॐ श्वेतांबराय नमः
ॐ जयाय नमः
ॐ जय-परीवाराय नमः
ॐ सहस्र-वदनाय नमः
ॐ कपये नमः
ॐ शाकिनी-डाकिनी-यक्ष-रक्षाय नमः
ॐ भूतौघ-भंजनाय नमः
ॐ सद्योजाताय नमः
ॐ कामगतये नमः
ॐ ज्ञान-मूर्तये नमः
ॐ यशस्कराय नमः
ॐ शंभु-तेजसे नमः
ॐ सार्वभौमाय नमः
ॐ विष्णु-भक्ताय नमः
ॐ चतुर्नवति-मन्त्रज्ञाय नमः
ॐ पौलस्त्य-बल-दर्पहाय नमः
ॐ सर्व-लक्ष्मी-प्रदाय नमः
ॐ श्रीमानाय नमः
ॐ अन्गदप्रियाय नमः
ॐ स्मृतये नमः
ॐ सुरेशानाय नमः
ॐ संसार-भय-नाशनाय नमः
ॐ उत्तमाय नमः
ॐ श्रीपरिवाराय नमः
ॐ सदागतिर्मातरये नमः
ॐ राम-पादाब्ज-षट्पदाय नमः
ॐ नील-प्रियाय नमः
ॐ नील-वर्णाय नमः
ॐ नील-वर्ण-प्रियाय नमः
ॐ सुहृताय नमः
ॐ राम दूताय नमः
ॐ लोक-बन्धवे नमः
ॐ अन्तरात्मा-मनोरमाय नमः
ॐ श्री राम ध्यानकृद् वीराय नमः
ॐ सदा किंपुरुषस्स्तुताय नमः
ॐ राम कार्यांतरंगाय नमः
ॐ शुद्धिर्गतिरानमयाय नमः
ॐ पुण्य श्लोकाय नमः
ॐ परानन्दाय नमः
ॐ परेशाय नमः
ॐ प्रिय सारथये नमः
ॐ लोक-स्वामिने नमः
ॐ मुक्ति-दात्रे नमः
ॐ सर्व-कारण-कारणाय नमः
ॐ महा-बलाय नमः
ॐ महा-वीराय नमः
ॐ पारावारगतये नमः
ॐ समस्त-लोक-साक्षिणे नमः
ॐ समस्त-सुर-वंदिताय नमः
ॐ सीता-समेत-श्रीराम-पाद-सेवा-धुरंधराय नमः

अनेन सहस्त्रनाम्नाऽमुकद्रव्यसमर्पणेन श्री हनुमद्देवता प्रीयताम् न मम।।

श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र

श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र
प्रस्तुत 'विचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र' दिव्य प्रभाव से परिपूर्ण है। इससे सभी प्रकार की बाधा, पीड़ा, दुःख का निवारण हो जाता है। शत्रु-विजय हेतु यह अनुपम अमोघ शस्त्र है। पहले प्रतिदिन इस माला मन्त्र के ११०० पाठ १० दिनों तक कर, दशांश गुग्गुल से 'हवन' करके सिद्ध कर ले। फिर आवश्यकतानुसार एक बार पाठ करने पर 'श्रीहनुमानजी' रक्षा करते हैं। सामान्य लोग प्रतिदिन केवल ११ बार पाठ करके ही अपनी कामना की पूर्ति कर सकते हैं। विनियोग, ऋष्यादि-न्यास, षडंग-न्यास, ध्यान का पाठ पहली और अन्तिम आवृत्ति में करे।

विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्माला-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्रो भगवान् ऋषिः। अनुष्टुप छन्दः। श्रीविचित्र-वीर-हनुमान्-देवता। ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे माला-मन्त्र-जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः-
श्रीरामचन्द्रो भगवान् ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। श्रीविचित्र-वीर-हनुमान्-देवतायै नमः हृदि। ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे माला-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

षडङ्ग-न्यासः-
ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः (हृदयाय नमः)। ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा)। ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्)। ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः (कवचाय हुं)। ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः (नेत्र-त्रयाय वौषट्)। ॐ ह्रः करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः (अस्त्राय फट्)।

ध्यानः-
वामे करे वैर-वहं वहन्तम्, शैलं परे श्रृखला-मालयाढ्यम्।
दधानमाध्मातमु्ग्र-वर्णम्, भजे ज्वलत्-कुण्डलमाञ्नेयम्।।

माला-मन्त्रः-
"ॐ नमो भगवते, विचित्र-वीर-हनुमते, प्रलय-कालानल-प्रभा-ज्वलत्-प्रताप-वज्र-देहाय, अञ्जनी-गर्भ-सम्भूताय, प्रकट-विक्रम-वीर-दैत्य-दानव-यक्ष-राक्षस-ग्रह-बन्धनाय, भूत-ग्रह, प्रेत-ग्रह, पिशाच-ग्रह, शाकिनी-ग्रह, डाकिनी-ग्रह ,काकिनी-ग्रह ,कामिनी-ग्रह ,ब्रह्म-ग्रह, ब्रह्मराक्षस-ग्रह, चोर-ग्रह बन्धनाय, एहि एहि, आगच्छागच्छ, आवेशयावेशय, मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय, स्फुट स्फुट, प्रस्फुट प्रस्फुट, सत्यं कथय कथय, व्याघ्र-मुखं बन्धय बन्धय, सर्प-मुखं बन्धय बन्धय, राज-मुखं बन्धय बन्धय, सभा-मुखं बन्धय बन्धय, शत्रु-मुखं बन्धय बन्धय, सर्व-मुखं बन्धय बन्धय, लंका-प्रासाद-भञ्जक। सर्व-जनं मे वशमानय, श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सर्वानाकर्षयाकर्षय, शत्रून् मर्दय मर्दय, मारय मारय, चूर्णय चूर्णय, खे खे श्रीरामचन्द्राज्ञया प्रज्ञया मम कार्य-सिद्धिं कुरु कुरु, मम शत्रून् भस्मी कुरु कुरु स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः फट् श्रीविचित्र-वीर-हनुमते। मम सर्व-शत्रून् भस्मी-कुरु कुरु, हन हन, हुं फट् स्वाहा।।"

(प्रति-दिनमेकादश-वारं जपेत्। पूर्व-न्यास-ध्यान-पूर्वकं निवेदयेत्)

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

श्रीहनुमत्-मन्त्र-चमत्कार-अनुष्ठान

श्रीहनुमत्-मन्त्र-चमत्कार-अनुष्ठान

(प्रस्तुत विधान के प्रत्येक मन्त्र के ११००० 'जप' एवं दशांश 'हवन' से सिद्धि होती है। हनुमान जी के मन्दिर में, 'रुद्राक्ष' की माला से, ब्रह्मचर्य-पूर्वक 'जप करें। नमक न खाए तो उत्तम है। कठिन-से-कठिन कार्य इन मन्त्रों की सिद्धि से सुचारु रुप से होते हैं।)

१॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, वायु-सुताय, अञ्जनी-गर्भ-सम्भूताय, अखण्ड-ब्रह्मचर्य-व्रत-पालन-तत्पराय, धवली-कृत-जगत्-त्रितयाय, ज्वलदग्नि-सूर्य-कोटि-समप्रभाय, प्रकट-पराक्रमाय, आक्रान्त-दिग्-मण्डलाय, यशोवितानाय, यशोऽलंकृताय, शोभिताननाय, महा-सामर्थ्याय, महा-तेज-पुञ्जः-विराजमानाय, श्रीराम-भक्ति-तत्पराय, श्रीराम-लक्ष्मणानन्द-कारणाय, कवि-सैन्य-प्राकाराय, सुग्रीव-सख्य-कारणाय, सुग्रीव-साहाय्य-कारणाय, ब्रह्मास्त्र-ब्रह्म-शक्ति-ग्रसनाय, लक्ष्मण-शक्ति-भेद-निवारणाय, शल्य-विशल्यौषधि-समानयनाय, बालोदित-भानु-मण्डल-ग्रसनाय, अक्षकुमार-छेदनाय, वन-रक्षाकर-समूह-विभञ्जनाय, द्रोण-पर्वतोत्पाटनाय, स्वामि-वचन-सम्पादितार्जुन, संयुग-संग्रामाय, गम्भीर-शब्दोदयाय, दक्षिणाशा-मार्तण्डाय, मेरु-पर्वत-पीठिकार्चनाय, दावानल-कालाग्नि-रुद्राय, समुद्र-लंघनाय, सीताऽऽश्वासनाय, सीता-रक्षकाय, राक्षसी-संघ-विदारणाय, अशोक-वन-विदारणाय, लंका-पुरी-दहनाय, दश-ग्रीव-शिरः-कृन्त्तकाय, कुम्भकर्णादि-वध-कारणाय, बालि-निर्वहण-कारणाय, मेघनाद-होम-विध्वंसनाय, इन्द्रजित-वध-कारणाय, सर्व-शास्त्र-पारंगताय, सर्व-ग्रह-विनाशकाय, सर्व-ज्वर-हराय, सर्व-भय-निवारणाय, सर्व-कष्ट-निवारणाय, सर्वापत्ति-निवारणाय, सर्व-दुष्टादि-निबर्हणाय, सर्व-शत्रुच्छेदनाय, भूत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी-ध्वंसकाय, सर्व-कार्य-साधकाय, प्राणि-मात्र-रक्षकाय, राम-दूताय-स्वाहा।।

२॰ ॐ नमो हनुमते, रुद्रावताराय, विश्व-रुपाय, अमित-विक्रमाय, प्रकट-पराक्रमाय, महा-बलाय, सूर्य-कोटि-समप्रभाय, राम-दूताय-स्वाहा।।

३॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय राम-सेवकाय, राम-भक्ति-तत्पराय, राम-हृदयाय, लक्ष्मण-शक्ति-भेद-निवारणाय, लक्ष्मण-रक्षकाय, दुष्ट-निबर्हणाय, राम-दूताय स्वाहा।।

४॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय सर्व-शत्रु-संहारणाय, सर्व-रोग-हराय, सर्व-वशीकरणाय, राम-दूताय स्वाहा।।

५॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, आध्यात्मिकाधि-दैविकाधि-भौतिक-ताप-त्रय-निवारणाय, राम-दूताय स्वाहा।।

६॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, देव-दानवर्षि-मुनि-वरदाय, राम-दूताय स्वाहा।।

७॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, भक्त-जन-मनः-कल्पना-कल्पद्रुमाय, दुष्ट-मनोरथ-स्तम्भनाय, प्रभञ्जन-प्राण-प्रियाय, महा-बल-पराक्रमाय, महा-विपत्ति-निवारणाय, पुत्र-पौत्र-धन-धान्यादि-विविध-सम्पत्-प्रदाय, राम-दूताय स्वाहा।।

८॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, वज्र-देहाय, वज्र-नखाय, वज्र-मुखाय, वज्र-रोम्णे, वज्र-नेत्राय, वज्र-दन्ताय, वज्र-कराय, वज्र-भक्ताय, राम-दूताय स्वाहा।।

९॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, पर-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र-त्राटक-नाशकाय, सर्व-ज्वरच्छेदकाय, सर्व-व्याधि-निकृन्त्तकाय, सर्व-भय-प्रशमनाय, सर्व-दुष्ट-मुख-स्तम्भनाय, सर्व-कार्य-सिद्धि-प्रदाय, राम-दूताय स्वाहा।।

१०॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, देव-दानव-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी-दुष्ट-ग्रह-बन्धनाय, राम-दूताय स्वाहा।।

११॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, पँच-वदनाय पूर्व-मुखे सकल-शत्रु-संहारकाय, राम-दूताय स्वाहा।।

१२॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, पञ्च-वदनाय दक्षिण-मुखे कराल-वदनाय, नारसिंहाय, सकल-भूत-प्रेत-दमनाय, राम-दूताय स्वाहा।।

१३॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, पञ्च वदनाय पश्चिम-मुखे गरुडाय, सकल-विष-निवारणाय, राम-दूताय स्वाहा।।

१४॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, पञ्च वदनाय उत्तर मुखे आदि-वराहाय, सकल-सम्पत्-कराय, राम-दूताय स्वाहा।।

१५॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, उर्ध्व-मुखे, हय-ग्रीवाय, सकल-जन-वशीकरणाय, राम-दूताय स्वाहा।।

१६॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, सर्व-ग्रहान, भूत-भविष्य-वर्त्तमानान्- समीप-स्थान् सर्व-काल-दुष्ट-बुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय पर-बलानि क्षोभय-क्षोभय, मम सर्व-कार्याणि साधय-साधय स्वाहा।।

१७॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, पर-कृत-यन्त्र-मन्त्र-पराहंकार-भूत-प्रेत-पिशाच-पर-दृष्टि-सर्व-विध्न-तर्जन-चेटक-विद्या-सर्व-ग्रह-भयं निवारय निवारय स्वाहा।।

१८॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, डाकिनी-शाकिनी-ब्रह्म-राक्षस-कुल-पिशाचोरु-भयं निवारय निवारय स्वाहा।।

१९॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, भूत-ज्वर-प्रेत-ज्वर-चातुर्थिक-ज्वर-विष्णु-ज्वर-महेश-ज्वर निवारय निवारय स्वाहा।।

२०॰ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय, अक्षि-शूल-पक्ष-शूल-शिरोऽभ्यन्तर-शूल-पित्त-शूल-ब्रह्म-राक्षस-शूल-पिशाच-कुलच्छेदनं निवारय निवारय स्वाहा।।

श्रीरामरक्षास्तोत्र

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्र ॥
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥

विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य । बुध-कौशिक ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः । श्रीसीतारामचंद्रो देवता । सीता शक्तिः । श्रीमद् हनुमान कीलकम् ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादि-न्यासः-
बुध-कौशिक ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छंदसे नमः मुखे । श्रीसीता-रामचंद्रो देवतायै नमः हृदि । सीता शक्तये नमः नाभौ । श्रीमद् हनुमान कीलकाय नमः पादयो ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ॥

॥ अथ ध्यानम् ॥
ध्यायेदाजानु-बाहुं धृत-शर-धनुषं बद्ध-पद्मासनस्थम् ।
पीतं वासो वसानं नव-कमल-दल-स्पर्धि-नेत्रं प्रसन्नम् ।
वामांकारूढ-सीता-मुख-कमल-मिलल्लोचनं नीरदाभम् ।
नानालंकार-दीप्तं दधतमुरु-जटामंडनं रामचंद्रम्॥
॥इति ध्यानम्॥

॥मूल-पाठ॥
चरितं रघुनाथस्य शत-कोटि प्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां, महापातकनाशनम् ॥ १॥
ध्यात्वा नीलोत्पल-श्यामं, रामं राजीव-लोचनम् ।
जानकी-लक्ष्मणोपेतं, जटा-मुकुट-मण्डितम् ॥ २॥
सासि-तूण-धनुर्बाण-पाणिं नक्तं चरान्तकम् ।
स्व-लीलया जगत्-त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥ ३॥
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः, पापघ्नीं सर्व-कामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु, भालं दशरथात्मजः ॥ ४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु, विश्वामित्रप्रियः श्रुती ।
घ्राणं पातु मख-त्राता, मुखं सौमित्रि-वत्सलः ॥ ५॥
जिह्वां विद्या-निधिः पातु, कण्ठं भरत-वंदितः ।
स्कंधौ दिव्यायुधः पातु, भुजौ भग्नेश-कार्मुकः ॥ ६॥
करौ सीता-पतिः पातु, हृदयं जामदग्न्य-जित् ।
मध्यं पातु खर-ध्वंसी, नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ ७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु, सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु, रक्षः-कुल-विनाश-कृत् ॥ ८॥
जानुनी सेतुकृत्पातु, जंघे दशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषण-श्रीदः, पातु रामोऽखिलं वपुः ॥ ९॥
एतां राम-बलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स चिरायुः सुखी पुत्री, विजयी विनयी भवेत् ॥ १०॥
पाताल-भूतल-व्योम-चारिणश्छद्म-चारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तासे, रक्षितं राम-नामभिः ॥ ११॥
रामेति राम-भद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ १२॥
जगज्जैत्रैक-मन्त्रेण राम-नाम्नाऽभिरक्षितम् ।
यः कंठे धारयेत्-तस्य करस्थाः सर्व-सिद्धयः ॥ १३॥
वज्र-पंजर-नामेदं, यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र, लभते जय-मंगलम् ॥ १४॥
आदिष्ट-वान् यथा स्वप्ने राम-रक्षामिमां हरः ।
तथा लिखित-वान् प्रातः, प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥ १५॥
आरामः कल्प-वृक्षाणां विरामः सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रि-लोकानां, रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥ १६॥
तरुणौ रूप-संपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुंडरीक-विशालाक्षौ चीर-कृष्णाजिनाम्बरौ ॥ १७॥
फल-मूलाशिनौ दान्तौ, तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ राम-लक्ष्मणौ ॥ १८॥
शरण्यौ सर्व-सत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्व-धनुष्मताम् ।
रक्षः कुल-निहंतारौ, त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ १९॥
आत्त-सज्ज-धनुषाविशु-स्पृशावक्षयाशुग-निषंग-संगिनौ ।
रक्षणाय मम राम-लक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ २०॥
सन्नद्धः कवची खड्गी चाप-बाण-धरो युवा ।
गच्छन्मनोरथोऽस्माकं, रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ २१॥
रामो दाशरथिः शूरो, लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णा, कौसल्येयो रघुत्तमः ॥ २२॥
वेदान्त-वेद्यो यज्ञेशः, पुराण-पुरुषोत्तमः ।
जानकी-वल्लभः श्रीमानप्रमेय-पराक्रमः ॥ २३॥
इत्येतानि जपन्नित्यं, मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं, संप्राप्नोति न संशयः ॥ २४॥
रामं दुर्वा-दल-श्यामं, पद्माक्षं पीत-वाससम् ।
स्तुवंति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नरः ॥ २५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेंद्रं सत्य-सन्धं दशरथ-तनयं श्यामलं शांत-मूर्तम् ।
वंदे लोकाभिरामं रघु-कुल-तिलकं राघवं रावणारिम् ॥ २६॥
रामाय राम-भद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ २७॥
श्रीराम राम रघुनंदन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रण-कर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ २८॥
श्रीरामचंद्र-चरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचंद्र-चरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ २९॥
माता रामो मत्पिता रामचंद्रः । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः ।
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य, वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघु-नंदनम् ॥ ३१॥
लोकाभिरामं रण-रंग-धीरम्, राजीव-नेत्रं रघु-वंश-नाथम् ।
कारुण्य-रूपं करुणाकरं तम्, श्रीरामचंद्रम् शरणं प्रपद्ये ॥ ३२॥
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धि-मतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यम्, श्रीराम-दूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविता-शाखां वंदे वाल्मीकि-कोकिलम् ॥ ३४॥
आपदां अपहर्तारं, दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥
भर्जनं भव-बीजानां अर्जनं सुख-सम्पदाम् ।
तर्जनं यम-दूतानां राम रामेति गर्जनम् ॥ ३६॥
रामो राज-मणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचर-चमू रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नास्ति परायणं पर-तरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् ।
रामे चित्त-लयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ३७॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ३८॥
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥
॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन

श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन
विनियोग - ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास-
श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गा देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो, श्रीं कीलकाय नमः नाभौ, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
कर न्यास - ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्याम नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याम वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।
अंग-न्यास -ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं, ॐ ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।

ध्यान -
सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजैः,
शँख चक्र-धनुः-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।
आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्-कांची-क्वणन् नूपुरा,
दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्-कुण्डला।।

मानस पूजन - ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृ्यात्मकं दीपं दर्शयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।

श्रीअर्जुन उवाच -
नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी,
कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।।
भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते।
चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।।
कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये,
शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।।
अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे,
गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।।
महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि,
अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।।
उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि,
हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।6।।
वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मण्ये जात-वेदसि,
जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।।
त्वं ब्रह्म-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्।
स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।।
स्वाहाकारः स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती।
सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।।
स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मा।
जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्-प्रसादाद् रणाजिरे।।10।।
कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च।
नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।।
त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्रीः श्रीस्तथैव च।
सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।।
तुष्टिः पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी।
भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणैः।।13।।
।। फल-श्रुति ।।
यः इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानवः।
यक्ष-रक्षः-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।।
न चापि रिपवस्तेभ्यः, सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः।
न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।।
विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।।
संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्न्नोति केवलाम्।
आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।

प्रयोग विधि -
उक्त स्तोत्र ‘महाभारत’ के ‘भीष्म पर्व’ से उद्धृत है।
१॰ इसकी साधना भगवती के मन्दिर अथवा घर में एकान्त में करनी चाहिये। ‘घी’ के दीपक में बत्ती के लिये अपनी नाप के बराबर रूई के सूत को 5 बार मोड़कर बटे तथा बटी हुई बत्ती को कुंकुम से रंगकर भगवती के सामने दीपक जलायें।
नवरात्र या सर्व सिद्धि योग से पाठ का प्रारम्भ करें कुल 9 या 21 दिन पाठ करें तथा प्रतिदिन 9 या 21 बार आवृत्ति करें। पाठ के बाद हवन करें। लाल वस्त्र तथा आसन प्रशस्त है। साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन करें।
इससे सभी प्रकार की बाधाएं समाप्त होती है तथा दरिद्रता का नाश होता है। शासकीय संकट, शत्रु बाधा की समाप्ति के लिये अनुभूत सिद्ध प्रयोग है।

२॰ नित्य दुर्गा-पूजा (सप्तशती-पाठ) के बाद उक्त स्तव के ३१ पाठ १ महिने तक किए जाएँ। या
३॰ नवरात्र काल में १०८ पाठ नित्य किए जाएँ, तो उक्त “दुर्गा-स्तवन” सिद्ध हो जाता है।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

ग्रह, आर्थिक, विवाह-बाधा-निवारण प्रयोग

ग्रह, आर्थिक, विवाह-बाधा-निवारण प्रयोग
१॰ सिन्दूर लगे अनुमान जी की मूर्ति का सिन्दूर लेकर सीता जी के चरणों में लगाएँ। फिर माता सीता से एक श्वास में अपनी कामना निवेदित कर भक्ति-पूर्वक प्रणाम कर वापस आ जाएँ। इस प्रकार कुछ दिन करने पर सभी प्रकार की बाधाओं का निवारण होता है एवं कामना-पुर्ति होती है।

२॰ किसी शनिवार को, यदि उस दिन 'सर्वार्थ-सिद्धि योग' हो, तो और भी उत्तम, सांय-काल अपनी लम्बाई के बराबर लाल रेशमी सूत नाप ले। फिर एक पत्ता बरगद का तोड़े। उसे स्वच्छ जल से धो-कर पोंछ ले। तब पत्ते को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इस प्रयोग से सभी प्रकार की बाधाएँ दूर होती है और कामनाओं की पुर्ति होती है।

३॰ रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र में, एक काला कौआ या काला कुत्ता पकड़े। उसके दाएँ पैर का नाखून काटें। इस नाखून को ताबीज में भर कर, धूप-दीपादि से पूजनकर, धारण करें। इससे आर्थिक बाधा दूर होती है। नौकरी, साक्षात्कार आदि में सफलता की प्राप्ति होती है। कौए या काले कुत्ते में से किसी एक का नाखून लें। दोनों का एक साथ प्रयोग न करें।

४॰ प्रत्येक प्रकार के संकट निवारण के लिए भगवान् गणेश की मूर्ति पर कम-से-कम २१ दिन तक थोड़ी-थोड़ी 'जावित्री, चढ़ावे और रात को सोते समय थोड़ी जावित्री खाकर सोवे। यह प्रयोग २१ दिनों तक अवश्य करे अथवा ४२, ६३ या ८४ दिनों तक करे।

गुप्त-सप्तशती

गुप्त-सप्तशती
सात सौ मन्त्रों की 'श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह 'गुप्त-सप्तशती' प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में 'कुञ्जिका-स्तोत्र', उसके बाद 'गुप्त-सप्तशती', तदन्तर 'स्तवन' का पाठ करे।

कुञ्जिका-स्तोत्र
।।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्‌॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्‌॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्‌।
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्‌॥ 4॥

अथ मंत्र

ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
इस 'कुञ्जिका-मन्त्र' का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार 'स्तव-पाठ' के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर 'कुञ्जिका स्तोत्र' का पाठ करे।

।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।।
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि।
जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥
।।मन्त्र।।
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥

पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।।
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये।
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।।
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ।

गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१

ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२

ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३

ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४

ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५

ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६

ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७

ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८

ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९

हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१०

स्तवन
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१

ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२

ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३

ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४

ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५

ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६

ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७

ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८

वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९

ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१०

रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११

इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२

चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३

कलश एवं जयन्ती का माहात्म्य

कलश एवं जयन्ती का माहात्म्य
माँ दुर्गा की पूजा का शुभारम्भ 'कलश'-स्थापना से होता है। स्थापना हेतु 'कलश' स्वर्ण, चाँदी, पीतल, ताम्र अथवा मिट्टी का होना चाहिए। 'कलश' देखने में सुडौल और पवित्र होने चाहिए। मिट्टी के ऐसे 'कलश' प्रयोग में नहीं लाने चाहिए, जिनमें छिद्र होने की सम्भावना हो।विशेष अनुष्ठान करना हो, तो धातु के 'कलश' का ही स्थापन करना चाहिए।
'कलश' में गंगा-जल, तीर्थ-जल, नदी का जल, तालाब का जल, झील का जल अथवा जिस कूप का 'याग' हुआ हो, उसका जल प्रयोग में ला सकते हैं। 'कलश' के नीचे 'सप्त-मृत्तिका' (१॰ अश्व, २॰ गज, ३॰ गो-शाला, ४॰ वल्मीक-दीमक की बाँबी, ५॰ नदी-संगम, ६॰ तराई तथा ७॰ राज-द्वार की मिट्टी) रखनी चाहिए। कलश में सर्वौषधि (मुरा, जटामासी, वच, कूट, हल्दी, दारु-हल्दी, कचूर, चम्पा तथा नागर मोथा) रखनी चाहिए। साथ ही, पञ्च-रत्न, पञ्च-पल्लव (आम, पलाश, बरगद, पीपल तथा चकिल), पूँगीफल (सुपारी) भी श्रद्धा-पूर्वक रखनी चाहिए। यदि कोई सामग्री उपलब्ध न हो, तो उसके स्थान पर 'अक्षत' चढ़ाने का विधान है। उदाहरण का लिये-यदि 'सप्त-मृत्तिका' नहीं मिल पाती, तो निम्न मन्त्र से अक्षत चढ़ाना चाहिए- "सप्त-मृत्तिका-स्थाने अक्षतं समर्पयामि"
'कलश के नीचे शुद्ध मिट्टी में विशुद्ध 'जौ' को बोना चाहिए। 'जौ' को आदि-अन्न माना जाता है। 'जौ' के पौधे को 'जयन्ती' कहते हैं। 'जयन्ती' से अनुष्ठान की सफलता का निर्धारण होता है।
अनुष्ठान-काल में इसे नित्य पवित्र जल से सींचना चाहिए। अनुष्ठान-काल की समाप्ति पर इसे माँ के मुकुट पर और भुजा पर चढ़ाते हैं, फिर अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
अनुष्ठान के बाद 'कलश' के जल तथा 'जयन्ती' का माहात्म्य विविध कार्यों हेतु इस प्रकार है-

१॰ कलश-जल का माहात्म्य
‍- 'कलश' के जल से मस्तक पर अभिषेक करने से सभी प्रकार की अभिलाषा पूरी होती है।
- 'कलश' के जल को पिलाने से असमय में 'गर्भ-पात' नहीं होता है तथा जिन्हें गर्भ-धारण नहीं होता, उन्हें लाभ होता है।
- 'कलश' के जल को वृक्षों, फसल, गो-शाला आदि में डालने से वृक्ष खूब फलरे-फूलते हैं, फसल की वृद्धि होती है और गाँए पर्याप्त मात्रा में दूध देती हैं।
- 'कलश' के जल को घर में छिड़कने से 'प्रेत-बाधा' का निवारण होता है।
- 'कलश' के जल को रोगी के मस्तक पर छिड़कने से रोग का निवारण होता है।
- 'कलश' के जल से मन्द बुद्धि वाले छात्र या छात्रओं का अभिषेक करने से ऊनकी बुद्धि का विकास होता है।

२॰ जयन्ती का माहात्म्य
ऐसी जयन्ती, जिसे 'शारदीय नवरात्र' में 'हस्त-नक्षत्र' में बोया गया हो और 'श्रवण नक्षत्र' में काटा गया हो, उसका माहात्म्य विभिन्न कार्यों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। यथा-
'विजयादशमी' के दिन माथे पर धारण करने से वर्ष भर सभी क्षेत्रों में विजय प्राप्त होती है।
'जयन्ती' को यन्त्र में मढ़ाकर गले अथवा भुजा पर धारण कर कोर्ट आदि में जाने से विजय-प्राप्ति होती है।
'प्रेत-बाधा-ग्रसित' व्यक्ति को 'यन्त्र' में मढ़ाकर धारण करवाने से प्रेत-बाधा शान्त होती है।
'जयन्ती' को कैश-बाक्स, मनी-बैग आदि में रखने से धन-प्राप्ति होती है।
धारण-विधि- 'जयन्ती' धारण करने के लिये सोने, चाँदी, ताम्बे अथवा अष्ट-धातु का ताबीज बनवाना चाहिए। जयन्ती को गंगा-जल से धोकर इसमें रखकर बन्द कर देना चाहिए। इसके बाद यन्त्र को स्पर्श करते हुए 'प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र' तीन बार पढ़ना चाहिए। तथा-
"ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य प्राणा इह प्राणाः। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य जीव इह स्थितः। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितानि। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः यन्त्र-राजस्य वाङ्-मनस्त्वक्-चक्षुः श्रोत्र-जिह्वा-घ्राण-पाद-पायूपस्थानि इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।"
फिर 'यन्त्र का पञ्चोपचार-पूजन कर लाल रेशमी धागे में गूँथ कर निम्न मन्त्र को पढ़ते हुए गले अथवा भुजा पर धारण करे। नारी वाम-भुजा पइर और पुरुष दाहिनी भुजा पर धारण करे। धारण किए हुए यन्त्र को उतारना नहीं चाहिए। धारण-मन्त्र इस प्रकार है-
"जयन्ती मंगला काली, भद्र-काली कलालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री, स्वधा स्वाहा नमोऽस्तु ते।।"

३॰ सिद्धि-असिद्धि की तत्काल परीक्षा
'सिद्धान्तशेखर' के अनुसार स्थापना के तीसरे की दिन यवांकुर (जयन्ती) के दर्शन हो जाने चाहिए।
इन यवांकुरों की बढ़ोत्तरी व प्रफुल्लता पर कार्य सिद्धि की परीक्षा होती है। 'अवृष्टिं कुरुते कृष्ण, धूम्राभं कलहं तथा' अर्थात् काले अंकुर उगने पर उस वर्ष अनावृष्टि, निर्धनता, धूयें की आभा वाले होने पर परिवार में कलह। न उगने पर जननाश, मृत्यु व कार्यबाधा। नीले रंग से दुर्भिक्ष (अकाल) समझें। रक्त वर्ण के होने पर रोग, व्याधि व शत्रुभय समझें। हरा रंग पुष्टिवर्धक तथा लाभप्रद है तथा श्वेत दूर्वा अत्यन्त शुभफलकारी व शीघ्र लाभदायक मानी गई है। आधी हरी व पीली दूर्वा उत्पन्न होने पर पहले कार्य होगा, किन्तु बाद में हानि होगी।
अशुभ दूर्वा के उत्पन्न होने पर आठवें दिन 'शांति होम' द्वारा उनका हवन किया जाता है। श्वेत दूर्वा पर अन्य कई तांत्रिक प्रयोगों का उल्लेख तन्त्रशास्त्र में मिलता है।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

प्राणेश्वर श्रीकृष्ण

प्राणेश्वर श्रीकृष्ण
मंत्र- "ॐ ऐं श्रीं क्लीं प्राण-वल्लभाय सौः सौभाग्यदाय श्रीकृष्णाय स्वाहा।" (22)
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीप्राणेश्वर-श्रीकृष्ण-मंन्त्रस्य भगवान् श्रीवेदव्यास ऋषिः, गायत्री छंदः, श्रीकृष्ण-परमात्मा देवता, क्लीं बीजं, श्रीं शक्तिः, ऐं कीलकं, ॐ व्यापकः, मम समस्त-क्लेश-परिहार्थं, चतुर्वर्ग-प्राप्तये, सौभाग्य-वृद्धयर्थं च जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीवेदव्यास ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छंदसे नमः मुखे, श्रीकृष्ण-परमात्मा देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, श्रीं शक्तये नमः नाभौ, ऐं कीलकाय नमः पादयो, ॐ व्यापकाय नमः सर्वाङ्गे, मम समस्त-क्लेश-परिहार्थं, चतुर्वर्ग-प्राप्तये, सौभाग्य-वृद्धयर्थं च जपे विनियोगाय नमः अंजलौ।
कर-न्यासः- ॐ ऐं श्रीं क्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः, प्राण-वल्लभाय तर्जनीभ्यां स्वाहा, सौः मध्यमाभ्यां वषट्, सौभाग्यदाय अनामिकाभ्यां हुं श्रीकृष्णाय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्, स्वाहा करतलकरपृष्ठाभ्यां फट्।
अंग-न्यासः- ॐ ऐं श्रीं क्लीं हृदयाय नमः, प्राण-वल्लभाय शिरसे स्वाहा, सौः शिखायै वषट्, सौभाग्यदाय शिखायै कवचाय हुं, श्रीकृष्णाय नेत्र-त्रयाय वौषट्, स्वाहा अस्त्राय फट्।
ध्यानः-
"कृष्णं जगन्मपहन-रुप-वर्णं, विलोक्य लज्जाऽऽकुलितां स्मराढ्याम्।
मधूक-माला-युत-कृष्ण-देहं, विलोक्य चालिंग्य हरिं स्मरन्तीम्।।"
अर्थात् संसार को मुग्ध करने वाले भगवान् कृष्ण के रुप-रंग को देखकर प्रेम-पूर्ण होकर गोपियाँ लज्जापूर्वक व्याकुल होती हैं और मन-ही-मन हरि को स्मरण करती हुई भगवान् कृष्ण की मधूक-पुष्पों की माला से विभुषित देह का आलिंगन करती हैं।
पुरश्चरण- १०,०००० जप।

३५ अक्षरी मन्त्र

।। ॐ एक ओंकार श्रीसत्-गुरू प्रसाद ॐ।।
ओंकार सर्व-प्रकाषी। आतम शुद्ध करे अविनाशी।।
ईश जीव में भेद न मानो। साद चोर सब ब्रह्म पिछानो।।
हस्ती चींटी तृण लो आदम। एक अखण्डत बसे अनादम्।।
ॐ आ ई सा हा
कारण करण अकर्ता कहिए। भान प्रकाश जगत ज्यूँ लहिए।।
खानपान कछु रूप न रेखं। विर्विकार अद्वैत अभेखम्।।
गीत गाम सब देश देशन्तर। सत करतार सर्व के अन्तर।।
घन की न्याईं सदा अखण्डत। ज्ञान बोध परमातम पण्डत।।
ॐ का खा गा घा ङा
चाप ङ्यान कर जहाँ विराजे। छाया द्वैत सकल उठि भाजे।।
जाग्रत स्वप्न सखोपत तुरीया। आतम भूपति की यहि पुरिया।।
झुणत्कार आहत घनघोरं। त्रकुटी भीतर अति छवि जोरम्।।
आहत योगी ञा रस माता। सोऽहं शब्द अमी रस दाता।।
चा छा जा झा ञा
टारनभ्रम अघन की सेना। सत गुरू मुकुति पदारथ देना।।
ठाकत द्रुगदा निरमल करणं। डार सुधा मुख आपदा हरणम्।।
ढावत द्वैत हन्हेरी मन की। णासत गुरू भ्रमता सब मन की।।
टा ठा डा ढा णा
तारन, गुरू बिना नहीं कोई। सत सिमरत साध बात परोई।।
थान अद्वैत तभी जाई परसे। मन वचन करम गुरू पद दरसे।।
दारिद्र रोग मिटे सब तन का। गुरू करूणा कर होवे मुक्ता।।
धन गुरूदेव मुकुति के दाते। ना ना नेत बेद जस गाते।।
ता था दा धा ना
पार ब्रह्म सम्माह समाना। साद सिद्धान्त कियो विख्याना।।
फाँसी कटी द्वात गुरू पूरे। तब वाजे सबद अनाहत धत्तूरे।।
वाणी ब्रह्म साथ भये मेल्ला। भंग अद्वैत सदा ऊ अकेल्ला।।
मान अपमान दोऊ जर गए। जोऊ थे सोऊ फुन भये।।
पा फा बा भा मा
या किरिया को सोऊ पिछाना। अद्वैत अखण्ड आपको माना।।
रम रह्या सबमें पुरूष अलेखं। आद अपार अनाद अभेखम्।।
ड़ा ड़ा मिति आतम दरसाना। प्रकट के ज्ञान जो तब माना।।
लवलीन भए आदम पद ऐसे। ज्यूँ जल जले भेद कहु कैसे।।
वासुदेव बिन और न कोऊ। नानक ॐ सोऽहं आत्म सोऽहम्।।
या रा ला वा ड़ा
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लृं श्री सुन्दरी बालायै नमः।।
।।फल श्रुति।।
पूरब मुख कर करे जो पाठ। एक सौ दस औं ऊपर आठ।।
पूत लक्ष्मी आपे आवे। गुरू का वचन न मिथ्या जावे।।
दक्षिन मुख घर पाठ जो करै। शत्रू ताको तच्छिन मरै।।
पच्छिम मुख पाठ करे जो कोई। ताके बस नर नारी होई।।
उत्तर दिसा सिद्धि को पावे। ताके वचन सिद्ध होइ जावे।।
बारा रोज पाठ करे जोई। जो कोई काज होव सिद्ध सोई।।
जाके गरभ पात होइ जाई। मन्त्रित कर जल पान कराई।।
एक मास ऐसी विधि करे। जनमे पुत्र फेर नहीं मरे।।
अठराहे दाराऊ पावा। गुरू कृपा ते काल रखावा।।
पति बस कीन्हा चाहे नार। गुरू की सेवा माहि अधार।।
मन्तर पढ़ के करे आहुति। नित्य प्रति करे मन्त्र की रूती।।
।। ॐ तत्सत् ब्रह्मणे नमः।।

श्री महा-विपरीत-प्रत्यंगिरा स्तोत्र (Diff.)

श्री महा-विपरीत-प्रत्यंगिरा स्तोत्र

नमस्कार मन्त्रः- श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-काल्यै नमः।

।।पूर्व-पीठिका-महेश्वर उवाच।।

श्रृणु देवि, महा-विद्यां, सर्व-सिद्धि-प्रदायिकां। यस्याः विज्ञान-मात्रेण, शत्रु-वर्गाः लयं गताः।।
विपरीता महा-काली, सर्व-भूत-भयंकरी। यस्याः प्रसंग-मात्रेण, कम्पते च जगत्-त्रयम्।।
न च शान्ति-प्रदः कोऽपि, परमेशो न चैव हि। देवताः प्रलयं यान्ति, किं पुनर्मानवादयः।।
पठनाद्धारणाद्देवि, सृष्टि-संहारको भवेत्। अभिचारादिकाः सर्वेया या साध्य-तमाः क्रियाः।।
स्मरेणन महा-काल्याः, नाशं जग्मुः सुरेश्वरि, सिद्धि-विद्या महा काली, परत्रेह च मोदते।।
सप्त-लक्ष-महा-विद्याः, गोपिताः परमेश्वरि, महा-काली महा-देवी, शंकरस्येष्ट-देवता।।
यस्याः प्रसाद-मात्रेण, पर-ब्रह्म महेश्वरः। कृत्रिमादि-विषघ्ना सा, प्रलयाग्नि-निवर्तिका।।
त्वद्-भक्त-दशंनाद् देवि, कम्पमानो महेश्वरः। यस्य निग्रह-मात्रेण, पृथिवी प्रलयं गता।।
दश-विद्याः सदा ज्ञाता, दश-द्वार-समाश्रिताः। प्राची-द्वारे भुवनेशी, दक्षिणे कालिका तथा।।
नाक्षत्री पश्चिमे द्वारे, उत्तरे भैरवी तथा। ऐशान्यां सततं देवि, प्रचण्ड-चण्डिका तथा।।
आग्नेय्यां बगला-देवी, रक्षः-कोणे मतंगिनी, धूमावती च वायव्वे, अध-ऊर्ध्वे च सुन्दरी।।
सम्मुखे षोडशी देवी, सदा जाग्रत्-स्वरुपिणी। वाम-भागे च देवेशि, महा-त्रिपुर-सुन्दरी।।
अंश-रुपेण देवेशि, सर्वाः देव्यः प्रतिष्ठिताः। महा-प्रत्यंगिरा सैव, विपरीता तथोदिता।।
महा-विष्णुर्यथा ज्ञातो, भुवनानां महेश्वरि। कर्ता पाता च संहर्ता, सत्यं सत्यं वदामि ते।।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदा देवी, महा-काली सुनिश्चिता। वेद-शास्त्र-प्रगुप्ता सा, न दृश्या देवतैरपि।।
अनन्त-कोटि-सूर्याभा, सर्व-शत्रु-भयंकरी। ध्यान-ज्ञान-विहीना सा, वेदान्तामृत-वर्षिणी।।
सर्व-मन्त्र-मयी काली, निगमागम-कारिणी। निगमागम-कारी सा, महा-प्रलय-कारिणी।।‍
यस्या अंग-घर्म-लवा, सा गंगा परमोदिता। महा-काली नगेन्द्रस्था, विपरीता महोदयाः।।
यत्र-यत्र प्रत्यंगिरा, तत्र काली प्रतिष्ठिता। सदा स्मरण-मात्रेण, शत्रूणां निगमागमाः।।
नाशं जग्मुः नाशमायुः सत्यं सत्यं वदामि ते। पर-ब्रह्म महा-देवि, पूजनैरीश्वरो भवेत्।।
शिव-कोटि-समो योगी, विष्णु-कोटि-समः स्थिरः। सर्वैराराधिता सा वै, भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिनी।।
गुरु-मन्त्र-शतं जप्त्वा, श्वेत-सर्षपमानयेत्। दश-दिशो विकिरेत् तान्, सर्व-शत्रु-क्षयाप्तये।।
भक्त-रक्षां शत्रु-नाशं, सा करोति च तत्क्षणात्। ततस्तु पाठ-मात्रेण, शत्रुणां मारणं भवेत्।।

गुरु-मन्त्रः- "ॐ हूं स्फारय-स्फारय, मारय-मारय, शत्रु-वर्गान् नाशय-नाशय स्वाहा।"

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-स्तोत्र-माला-मन्त्रस्य श्रीमहा-काल-भैरव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा देवता, हूं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः-
शिरसि श्रीमहा-काल-भैरव ऋषये नमः। मुखे त्रिष्टुप् छन्दसे नमः। हृदि श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा देवतायै नमः। गुह्ये हूं बीजाय नमः। पादयोः ह्रीं शक्तये नमः। नाभौ क्लीं कीलकाय नमः। सर्वांगे मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगाय नमः।

कर-न्यासः-
हूं ह्रीं क्लीं ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ तर्जनीभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ मध्यमाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अनामिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कनिष्ठिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कर-तल-द्वयोर्नमः।

हृदयादि-न्यासः-
हूं ह्रीं क्लीं ॐ हृदयाय नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिरसे स्वाहा। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिखायै वषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कवचाय हुम्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ नेत्र-त्रयाय वौषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अस्त्राय फट्।

।।मूल स्तोत्र-पाठ।।
ॐ नमो विपरीत-प्रत्यंगिरायै सहस्त्रानेक-कार्य-लोचनायै कोटि-विद्युज्जिह्वायै महा-व्याव्यापिन्यै संहार-रुपायै जन्म-शान्ति-कारिण्यै। मम स-परिवारकस्य भावि-भूत-भवच्छत्रून् स-दाराऽपत्यान् संहारय संहारय, महा-प्रभावं दर्शय दर्शय, हिलि हिलि, किलि किलि, मिलि मिलि, चिलि चिलि, भूरि भूरि, विद्युज्जिह्वे, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, ध्वंसय ध्वंसय, प्रध्वंसय प्रध्वंसय, ग्रासय ग्रासय, पिब पिब, नाशय नाशय, त्रासय त्रासय, वित्रासय वित्रासय, मारय मारय, विमारय विमारय, भ्रामय भ्रामय, विभ्रामय विभ्रामय, द्रावय द्रावय, विद्रावय विद्रावय हूं हूं फट् स्वाहा।।२४

हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे, हूं लं ह्रीं लं क्लीं लं ॐ लं फट् फट् स्वाहा। हूं लं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रून् देवता-पितृ-पिशाच-नाग-गरुड़-किन्नर-विद्याधर-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-लोक-पालान् ग्रह-भूत-नर-लोकान् स-मन्त्रान् सौषधान् सायुधान् स-सहायान् बाणैः छिन्दि छिन्दि, भिन्धि भिन्धि, निकृन्तय निकृन्तय, छेदय छेदय, उच्चाटय उच्चाटय, मारय मारय, तेषां साहंकारादि-धर्मान् कीलय कीलय, घातय घातय, नाशय नाशय, विपरीत-प्रत्यंगिरे। स्फ्रें स्फ्रेंत्कारिणि। ॐ ॐ जं जं जं जं जं, ॐ ठः ठः ठः ठः ठः मम स-परिवारकस्य शत्रूणां सर्वाः विद्याः स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, हस्तौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, मुखं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, नेत्राणि स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, दन्तान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, जिह्वां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, पादौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, गुह्यं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स-कुटुम्बानां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स्थानं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, सम्प्राणान् कीलय कीलय, नाशय नाशय, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। मम स-परिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, फट् फट् स्वाहा ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं।।२५


ऐं ह्रूं ह्रीं क्लीं हूं सों विपरीत-प्रत्यंगिरे, मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रूणामुच्चाटनं कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा, ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वं वं वं वं वं लं लं लं लं लं लं रं रं रं रं रं यं यं यं यं यं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमो भगवति, विपरीत-प्रत्यंगिरे, दुष्ट-चाण्डालिनि, त्रिशूल-वज्रांकुश-शक्ति-शूल-धनुः-शर-पाश-धारिणि, शत्रु-रुधिर-चर्म मेदो-मांसास्थि-मज्जा-शुक्र-मेहन्-वसा-वाक्-प्राण-मस्तक-हेत्वादि-भक्षिणि, पर-ब्रह्म-शिवे, ज्वाला-दायिनि, ज्वाला-मालिनि, शत्रुच्चाटन-मारण-क्षोभण-स्तम्भन-मोहन-द्रावण-जृम्भण-भ्रामण-रौद्रण-सन्तापन-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रान्तर्याग-पुरश्चरण-भूत-शुद्धि-पूजा-फल-परम-निर्वाण-हरण-कारिणि, कपाल-खट्वांग-परशु-धारिणि। मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रुन् स-सहायान् स-वाहनान् हन हन रण रण, दह दह, दम दम, धम धम, पच पच, मथ मथ, लंघय लंघय, खादय खादय, चर्वय चर्वय, व्यथय व्यथय, ज्वरय ज्वरय, मूकान् कुरु कुरु, ज्ञानं हर हर, हूं हूं फट् फट् स्वाहा।।२६

ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् स्वाहा। मम स-परिवारकस्य कृत मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-हवन-कृत्यौषध-विष-चूर्ण-शस्त्राद्यभिचार-सर्वोपद्रवादिकं येन कृतं, कारितं, कुरुते, करिष्यति, तान् सर्वान् हन हन, स्फारय स्फारय, सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।२७

ॐ हूं ह्रीं क्लीं ॐ अं विपरीत-प्रत्यंगिरे, मम स-परिवारकस्य शत्रवः कुर्वन्ति, करिष्यन्ति, शत्रुस्च, कारयामास, कारयिष्यन्ति, याऽ याऽन्यां कृत्यान् तैः सार्द्ध तांस्तां विपरीतां कुरु कुरु, नाशय नाशय, मारय मारय, श्मशानस्थां कुरु कुरु, कृत्यादिकां क्रियां भावि-भूत-भवच्छत्रूणां यावत् कृत्यादिकां विपरीतां कुरु कुरु, तान् डाकिनी-मुखे हारय हारय, भीषय भीषय, त्रासय त्रासय, मारय मारय, परम-शमन-रुपेण हन हन, धर्मावच्छिन्न-निर्वाणं हर हर, तेषां इष्ट-देवानां शासय शासय, क्षोभय क्षोभय, प्राणादि-मनो-बुद्धयहंकार-क्षुत्-तृष्णाऽऽकर्षण-लयन-आवागमन-मरणादिकं नाशय नाशय, हूं हूं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ॐ फट् फट् स्वाहा।२८

क्षं ऴं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। क्षं ऴं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।२९

अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। ङं घं गं खं कं। ञं झं जं छं चं। णं ढं डं ठं टं। नं धं दं थं तं। मं भं बं फं पं। वं लं रं यं। क्षं ऴं हं सं षं शं। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मम स-परिवारकस्य स्थाने मम शत्रूणां कृत्यान् सर्वान् विपरीतान् कुरु कुरु, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रार्चन-श्मशानारोहण-भूमि-स्थापन-भस्म-प्रक्षेपण-पुरश्चरण-होमाभिषेकादिकान् कृत्यान् दूरी कुरु कुरु, नाशं कुरु कुरु, हूं विपरीत-प्रत्यंगिरे। मां स-परिवारकं सर्वतः सर्वेभ्यो रक्ष रक्ष हूं ह्रीं फट् स्वाहा।।३०

अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। हूं ह्रीं क्लीं ॐ फट् स्वाहा। ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं, अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य शत्रूणां विपरीतादि-क्रियां नाशय नाशय, त्रुटिं कुरु कुरु, तेषामिष्ट-देवतादि-विनाशं कुरु कुरु, सिद्धिं अपनयापनय, विपरीत-प्रत्यंगिरे, शत्रु-मर्दिनि। भयंकरि। नाना-कृत्यादि-मर्दिनि, ज्वालिनि, महा-घोर-तरे, त्रिभुवन-भयंकरि शत्रूणां मम स-परिवारकस्य चक्षुः-श्रोत्रादि-पादौं सवतः सर्वेभ्यः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।।३१

श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वसुन्धरे। मम स-परिवारकस्य स्थानं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३२
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ महा-लक्ष्मि। मम स-परिवारकस्य पादौ रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३३
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चण्डिके। मम स-परिवारकस्य जंघे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३४
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चामुण्डे। मम स-परिवारकस्य गुह्यं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३५
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ इन्द्राणि। मम स-परिवारकस्य नाभिं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३६
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ नारसिंहि। मम स-परिवारकस्य बाहू रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३७
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वाराहि। मम स-परिवारकस्य हृदयं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३८
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वैष्णवि। मम स-परिवारकस्य कण्ठं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३९
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ कौमारि। मम स-परिवारकस्य वक्त्रं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४०
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ माहेश्वरि। मम स-परिवारकस्य नेत्रे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४१
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ब्रह्माणि। मम स-परिवारकस्य शिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४२
हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य छिद्रं सर्व गात्राणि रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४३

सन्तापिनी संहारिणी, रौद्री च भ्रामिणी तथा।जृम्भिणी द्राविणी चैव, क्षोभिणि मोहिनी ततः।।
स्तम्भिनी चांडशरुपास्ताः, शत्रु-पक्षे नियोजिताः। प्रेरिता साधकेन्द्रेण, दुष्ट-शत्रु-प्रमर्दिकाः।।

ॐ सन्तापिनि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् सन्तापय सन्तापय हूं फट् स्वाहा।।४४
ॐ संहारिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् संहारय संहारय हूं फट् स्वाहा।।४५
ॐ रौद्रि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् रौद्रय रौद्रय हूं फट् स्वाहा।।४६
ॐ भ्रामिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् भ्रामय भ्रामय हूं फट् स्वाहा।।४७
ॐ जृम्भिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् जृम्भय जृम्भय हूं फट् स्वाहा।।४८
ॐ द्राविणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् द्रावय द्रावय हूं फट् स्वाहा।।४९
ॐ क्षोभिणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् क्षोभय क्षोभय हूं फट् स्वाहा।।५०
ॐ मोहिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् मोहय मोहय हूं फट् स्वाहा।।५१
ॐ स्तम्भिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय हूं फट् स्वाहा।।५२

।।फल-श्रुति।।
श्रृणोति य इमां विद्यां, श्रृणोति च सदाऽपि ताम्। यावत् कृत्यादि-शत्रूणां, तत्क्षणादेव नश्यति।।
मारणं शत्रु-वर्गाणां, रक्षणाय चात्म-परम्। आयुर्वृद्धिर्यशो-वृद्धिस्तेजो-वृद्धिस्तथैव च।।
कुबेर इव वित्ताढ्यः, सर्व-सौख्यमवाप्नुयात्। वाय्वादीनामुपशमं, विषम-ज्वर-नाशनम्।।
पर-वित्त-हरा सा वै, पर-प्राण-हरा तथा। पर-क्षोभादिक-करा, तथा सम्पत्-करा शुभा।।
स्मृति-मात्रेण देवेशि। शत्रु-वर्गाः लयं गताः। इदं सत्यमिदं सत्यं, दुर्लभा देवतैरपि।।
शठाय पर-शिष्याय, न प्रकाश्या कदाचन। पुत्राय भक्ति-युक्ताय, स्व-शिष्याय तपस्विने।।
प्रदातव्या महा-विद्या, चात्म-वर्ग-प्रदायतः। विना ध्यानैर्विना जापैर्वना पूजा-विधानतः।।
विना षोढा विना ज्ञानैर्मोक्ष-सिद्धिः प्रजायते। पर-नारी-हरा विद्या, पर-रुप-हरा तथा।।
वायु-चन्द्र-स्तम्भ-करा, मैथुनानन्द-संयुता। त्रि-सन्ध्यमेक-सन्ध्यं वा, यः पठेद्भक्तितः सदा।।
सत्यं वदामि देवेशि। मम कोटि-समो भवेत्। क्रोधाद्देव-गणाः सर्वे, लयं यास्यन्ति निश्चितम्।।
किं पुनर्मानवा देवि। भूत-प्रेतादयो मृताः। विपरीत-समा विद्या, न भूता न भविष्यति।।
पठनान्ते पर-ब्रह्म-विद्यां स-भास्करां तथा। मातृकांपुटितं देवि, दशधा प्रजपेत् सुधीः।।
वेदादि-पुटिता देवि। मातृकाऽनन्त-रुपिणी। तया हि पुटितां विद्यां, प्रजपेत् साधकोत्तमः।।
मनो जित्वा जपेल्लोकं, भोग रोगं तथा यजेत्। दीनतां हीनतां जित्वा, कामिनी निर्वाण-पद्धतिम्।।

पर-ब्रह्म-विद्या-
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-महा-प्रत्यंगिरे ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ, अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ। (१० वारं जपेत्)।।६६ से ७५

प्रार्थना-
ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-महा-प्रत्यंगिरे। स-परिवारकस्य सर्वेभ्यः सर्वतः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु, मरण-भयमपनयापनय, त्रि-जगतां बल-रुप-वित्तायुर्मे स-परिवारकस्य देहि देहि, दापय दापय, साधकत्वं प्रभुत्वं च सततं देहि देहि, विश्व-रुपे। धनं पुत्रान् देहि देहि, मां स-परिवारकं, मां पश्यन्तु। देहिनः सर्वे हिंसकाः हि प्रलयं यान्तु, मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रूणां बल-बुद्धि-हानिं कुरु कुरु, तान् स-सहायान् सेष्ट-देवान् संहारय संहारय, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-लोकान् प्राणान् हर हर, हारय हारय, स्वाभिचारमपनयापनय, ब्रह्मास्त्रादीनि नाशय नाशय, हूं हूं स्फ्रें स्फ्रें ठः ठः ठः फट् फट् स्वाहा।।
।।इति श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-स्तोत्रम्।।

विशेष ज्ञातव्यः-
शास्त्रों में प्रायः सभी महा-विद्याओं और अन्य देवताओं के 'विपरीत-प्रत्यंगिरा मन्त्र-स्तोत्रादि' मिलते हैं, किन्तु यह स्तोत्र उन सबकी चरम सीमा है। इसकी 'पूर्व-पीठिका' और 'फल-श्रुति' में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। केवल करने की सामर्थ्य भर हो। किसी भी प्रकार का अभिचार, रोग, ग्रह-पीड़ा, देव-पीड़ा, दुर्भाग्य, शत्रु या राज-भय आदि क्या है ऐसा, जिसका शमन इससे नहीं हो सकता। इसके साधक को 'कृत्या' देख भी नहीं सकती, अहित कर पाना तो आकाश-कुसुम है।
१॰ पूर्व-पीठिका के तेईस श्लोकों का पाठ करके, दस दाने सफेद सरसों (इसे ही पीली सरसों भी कहते हैं। अन्य नाम हैं-सिद्धार्थ, राई, राजिका आदि।) लेकर गुरु-मन्त्र से १०० बार (१०८ बार नहीं) अभिमन्त्रित कर दशों दिशाओं में दस-दस दाना फेंक दें। फिर विनियोगादि आगे की क्रिया करके पाठ करें।
आप चाहें तो सरसों के दाने अधिक भी ले सकते हैं, किन्तु सभी दिशाओं में दाने समान संख्या में फेंके।
२॰ फल-श्रुति के अन्त में 'पर-ब्रह्म-विद्या' का १० बार जप करें। यदि अधिक संख्या में पाठ करें, तो 'पर-ब्रह्म-विद्या' का जप केवल प्रथम और अन्तिम पाठ में करें। बीच के पाठों में मात्र 'स्तोत्र' का पाठ होगा।

३॰ पुरश्चरण आवश्यक नहीं है, किन्तु सर्वोत्तम होगा कि विधि-पूर्वक १००० पाठ कर लिए जाएँ। प्रयोग के लिए १०० पाठ पर्याप्त है, यदि आवश्यक हो तो अधिक करें।
५॰ पुरश्चरण और प्रयोग काल में नित्य शिवा-बलि अवश्य दें। कौल-साधक तत्त्वों से तथा पाशव-कल्प के साधक अनुकल्पों से बलि दें।

श्री महा-विपरीत-प्रत्यंगिरा स्तोत्र

श्री महा-विपरीत-प्रत्यंगिरा स्तोत्र

नमस्कार मन्त्रः- श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-काल्यै नमः।

।।पूर्व-पीठिका-महेश्वर उवाच।।

श्रृणु देवि, महा-विद्यां, सर्व-सिद्धि-प्रदायिकां। यस्याः विज्ञान-मात्रेण, शत्रु-वर्गाः लयं गताः।।
विपरीता महा-काली, सर्व-भूत-भयंकरी। यस्याः प्रसंग-मात्रेण, कम्पते च जगत्-त्रयम्।।
न च शान्ति-प्रदः कोऽपि, परमेशो न चैव हि। देवताः प्रलयं यान्ति, किं पुनर्मानवादयः।।
पठनाद्धारणाद्देवि, सृष्टि-संहारको भवेत्। अभिचारादिकाः सर्वेया या साध्य-तमाः क्रियाः।।
स्मरेणन महा-काल्याः, नाशं जग्मुः सुरेश्वरि, सिद्धि-विद्या महा काली, परत्रेह च मोदते।।
सप्त-लक्ष-महा-विद्याः, गोपिताः परमेश्वरि, महा-काली महा-देवी, शंकरस्येष्ट-देवता।।
यस्याः प्रसाद-मात्रेण, पर-ब्रह्म महेश्वरः। कृत्रिमादि-विषघ्ना सा, प्रलयाग्नि-निवर्तिका।।
त्वद्-भक्त-दशंनाद् देवि, कम्पमानो महेश्वरः। यस्य निग्रह-मात्रेण, पृथिवी प्रलयं गता।।
दश-विद्याः सदा ज्ञाता, दश-द्वार-समाश्रिताः। प्राची-द्वारे भुवनेशी, दक्षिणे कालिका तथा।।
नाक्षत्री पश्चिमे द्वारे, उत्तरे भैरवी तथा। ऐशान्यां सततं देवि, प्रचण्ड-चण्डिका तथा।।
आग्नेय्यां बगला-देवी, रक्षः-कोणे मतंगिनी, धूमावती च वायव्वे, अध-ऊर्ध्वे च सुन्दरी।।
सम्मुखे षोडशी देवी, सदा जाग्रत्-स्वरुपिणी। वाम-भागे च देवेशि, महा-त्रिपुर-सुन्दरी।।
अंश-रुपेण देवेशि, सर्वाः देव्यः प्रतिष्ठिताः। महा-प्रत्यंगिरा सैव, विपरीता तथोदिता।।
महा-विष्णुर्यथा ज्ञातो, भुवनानां महेश्वरि। कर्ता पाता च संहर्ता, सत्यं सत्यं वदामि ते।।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदा देवी, महा-काली सुनिश्चिता। वेद-शास्त्र-प्रगुप्ता सा, न दृश्या देवतैरपि।।
अनन्त-कोटि-सूर्याभा, सर्व-शत्रु-भयंकरी। ध्यान-ज्ञान-विहीना सा, वेदान्तामृत-वर्षिणी।।
सर्व-मन्त्र-मयी काली, निगमागम-कारिणी। निगमागम-कारी सा, महा-प्रलय-कारिणी।।‍
यस्या अंग-घर्म-लवा, सा गंगा परमोदिता। महा-काली नगेन्द्रस्था, विपरीता महोदयाः।।
यत्र-यत्र प्रत्यंगिरा, तत्र काली प्रतिष्ठिता। सदा स्मरण-मात्रेण, शत्रूणां निगमागमाः।।
नाशं जग्मुः नाशमायुः सत्यं सत्यं वदामि ते। पर-ब्रह्म महा-देवि, पूजनैरीश्वरो भवेत्।।
शिव-कोटि-समो योगी, विष्णु-कोटि-समः स्थिरः। सर्वैराराधिता सा वै, भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिनी।।
गुरु-मन्त्र-शतं जप्त्वा, श्वेत-सर्षपमानयेत्। दश-दिशो विकिरेत् तान्, सर्व-शत्रु-क्षयाप्तये।।
भक्त-रक्षां शत्रु-नाशं, सा करोति च तत्क्षणात्। ततस्तु पाठ-मात्रेण, शत्रुणां मारणं भवेत्।।

गुरु-मन्त्रः- "ॐ हूं स्फारय-स्फारय, मारय-मारय, शत्रु-वर्गान् नाशय-नाशय स्वाहा।"

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-स्तोत्र-माला-मन्त्रस्य श्रीमहा-काल-भैरव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा देवता, हूं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः-
शिरसि श्रीमहा-काल-भैरव ऋषये नमः। मुखे त्रिष्टुप् छन्दसे नमः। हृदि श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा देवतायै नमः। गुह्ये हूं बीजाय नमः। पादयोः ह्रीं शक्तये नमः। नाभौ क्लीं कीलकाय नमः। सर्वांगे मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगाय नमः।

कर-न्यासः-
हूं ह्रीं क्लीं ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ तर्जनीभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ मध्यमाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अनामिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कनिष्ठिकाभ्यां नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कर-तल-द्वयोर्नमः।

हृदयादि-न्यासः-
हूं ह्रीं क्लीं ॐ हृदयाय नमः। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिरसे स्वाहा। हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिखायै वषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ कवचाय हुम्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ नेत्र-त्रयाय वौषट्। हूं ह्रीं क्लीं ॐ अस्त्राय फट्।

।।मूल स्तोत्र-पाठ।।
ॐ अं अं अं नमो विपरीत-प्रत्यंगिरायै सहस्त्रानेक-सूर्य-लोचनायै कोटि-विद्युज्जिह्वायै महा-व्याधिन्यै संहार-रुपायै जन्म-शान्ति-कारिण्यै। मम स-परिवारकस्य भावि-भूत-भवच्छत्रून् स-दारापत्यान् संहारय संहारय, महा-प्रभावं दर्शय दर्शय, हिलि हिलि, मिलि मिलि, भूरि भूरि, विद्युज्जिह्वे, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, ध्वंसय ध्वंसय, प्रध्वंसय प्रध्वंसय, ग्रस ग्रस, पिब पिब, नाशय नाशय, त्रासय त्रासय, वित्रासय वित्रासय, द्रावय द्रावय, विद्रावय विद्रावय, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं फट् फट् स्वाहा।।२४

हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं विपरीत-प्रत्यंगिरे, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रून् खड्गेन घातय घातय, त्रिशूलेन मारय मारय, विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-दाराऽपत्यस्य भूत-भावि-भवच्छत्रून् देवता-पितृ-पिशाच-नाग-गरुड़-किन्नर-विद्याधर-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-लोकपालान् ग्रह-भूत-नर-लोकान् स-मन्त्रान् सौषधान् सायुधान् स-सहायान् बाणैः छिन्धि छिन्धि, भिन्धि भिन्धि, निकृन्तय निकृन्तय, छेदय छेदय, उच्चाटय उच्चाटय, मारय मारय, तेषामहंकारादि-धर्मान् कीलय कीलय, घातय घातय, नाशय नाशय, विपरीत-प्रत्यंगिरे। स्फ्रें फेत्कारिणि। ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः, ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः मम स-परिवारकस्य शत्रूणां सर्वाः विद्याः स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, शिरांसि स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, मुखान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, नेत्राणि स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, दन्तान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, जिह्वां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, कण्ठान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, हृदयान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, हस्तान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, पादान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, गुह्यं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, कुटुम्बान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, वृतिं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स्थानं कीलय कीलय, नाशय नाशय, प्राणान् कीलय कीलय, नाशय नाशय, ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः ॐ अं जः, ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः ॐ अं ठः, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं विपरीत-प्रत्यंगिरे, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा मम स-परिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, ॐ हुं फट् स्वाहा।।२५


हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे, मम स-परिवारकस्य भूत-भावि-भवच्छत्रूणां उच्चाटनं कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा, ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वं वं वं वं वं लं लं लं लं लं लं रं रं रं रं रं यं यं यं यं यं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमो भगवति, विपरीत-प्रत्यंगिरे, दुष्ट-चाण्डालिनि, त्रिशूल-वज्रांकुश-शक्ति-शूल-खड्ग-धनुः-शर-पाश-धारिणि, शत्रु-रुधिर-चर्म मेदो-मांसास्थि-मज्जा-शुक्र-मेहन्-वसा-वाक्-प्राण-मस्तकादि-भक्षिणि, पर-ब्रह्म-शिवे, ज्वाला-दायिनि, ज्वाला-मालिनि, शत्रुच्चाटन-मारण-क्षोभण-स्तम्भन-मोहन-द्रावण-जृम्भण-भ्रामण-रौद्रण-सन्तापन-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रान्तर्याग-पुरश्चरण-भूत-शुद्धि-पूजा-फल-परम-निर्वाण-हरण-कारिणि, कपाल-खट्वांग-वराऽसि-धारिणि। मम स-परिवारकस्य भूत-भावि-भवच्छत्रुन् स-सहायान् सायुधान् स-वाहनान् हन हन रण रण, दह दह, दल दल, दम दम, धम धम, पच पच, मथ मथ, लंघय लंघय, खादय खादय, चर्वय चर्वय, व्यथय व्यथय, ज्वरय ज्वरय, मूकान् कुरु कुरु, ज्ञानं हर हर, ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वं वं वं वं वं लं लं लं लं लं लं रं रं रं रं रं यं यं यं यं यं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हूं हूं फट् फट् स्वाहा।।२६

ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं विपरीत-प्रत्यंगिरे। ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। मम स-परिवारकस्य कृते मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-हवन-कृत्यौषधि-विष-चूर्ण-शस्त्राद्यभिचार-सर्वोपद्रवादिकं येन कृतं, कारितं, कुरुते, कारयते, करिष्यति कारयिष्यति वा तान् सर्वान् हन हन, स्फारय स्फारय, मारय मारय, विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं विपरीत-प्रत्यंगिरे। ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।२७

हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे, मम स-परिवारकस्य शत्रवः कुर्वन्ति, करिष्यन्ति, चक्रुश्च, कारयामासुः, कारयन्ति, कारयिष्यन्ति यान् यान् कृत्यान् तैः सार्द्ध तान् तान् विपरीतान् कुरु कुरु, नाशय नाशय, मारय मारय, श्मशानस्थान् कुरु कुरु, भूत-भावि-भवच्छत्रूणां यावत् कृत्यादिकां क्रियां विपरीतां कुरु कुरु, तान् डाकिनी-मुखे हारय हारय, भीषय भीषय, त्रासय त्रासय, मारय मारय, परम-शमन-रुपेण हन हन, धर्म-विच्छिन्न-निर्वाणं हर हर, तेषां इष्ट-देवान् नाशय नाशय, क्षोभय क्षोभय, हारय हारय, प्राणादि-मनो-बुद्धयहंकार-क्षुत्-तृष्णा-कर्षण-लयन-श्रवण-आवागमन-भरणादिकं नाशय नाशय, हूं ह्रीं क्लीं ॐ फट् फट् स्वाहा।२८

क्षं ळं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं विपरीत-प्रत्यंगिरे, हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा क्षं ळं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं। णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं।।२९

अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। ङं घं गं खं कं। ञं झं जं छं चं। णं ढं डं ठं टं। नं धं दं थं तं। मं भं बं फं पं। वं लं रं यं। क्षं ळं हं सं षं शं। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा। अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं। ङं घं गं खं कं। ञं झं जं छं चं। णं ढं डं ठं टं। नं धं दं थं तं। मं भं बं फं पं। वं लं रं यं। क्षं ळं हं सं षं शं। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य स्थाने मम शत्रूणां कृत्यान् सर्वान् विपरीतान् कुरु कुरु भस्मी कुरु कुरु, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रार्चन-श्मशानारोहण-भूमि-स्थापन-भस्म-प्रक्षेपण-पुरश्चरण-होम-तर्पणाभिषेकादिकान् कृत्यान् दूरी कुरु कुरु, नाशं कुरु कुरु, हूं विपरीत-प्रत्यंगिरे। मां स-परिवारकं सर्वतः सर्वेभ्यो रक्ष रक्ष हूं ह्रीं फट् स्वाहा।।३०

अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। क्लीं श्रीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ, अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः। कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं। विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य शत्रूणां विपरीतादि-क्रियां नाशय नाशय, त्रुटिं कुरु कुरु, तेषां इष्ट-देवादि-विनाशं कुरु कुरु, सिद्धिं अपनयापनय, विपरीत-प्रत्यंगिरे, शत्रु-मर्दिनि। शत्रूणां भयंकरि। नाना-कृत्यादि-मर्दिनि, ज्वालिनि, महा-घोर-तरे, त्रिभुवन-भयंकरि शत्रूणां चक्षुः-श्रोत्रादि-हारिणि। मम स-परिवारकस्य सर्वतः सर्वेभ्यः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।।३१

श्रीं ह्रीं ऐं ॐ धरणि। मम स-परिवारकस्य भूमिं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३२
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ महा-लक्ष्मि। मम स-परिवारकस्य पादौ रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३३
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चण्डिके। मम स-परिवारकस्य जंघे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३४
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चामुण्डे। मम स-परिवारकस्य गुह्यं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३५
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ऐन्द्रि। मम स-परिवारकस्य नाभिं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३६
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ नारसिंहि। मम स-परिवारकस्य बाहू रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३७
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वाराहि। मम स-परिवारकस्य हृदयं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३८
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वैष्णवि। मम स-परिवारकस्य कण्ठं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।३९
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ कौमारि। मम स-परिवारकस्य वक्त्रं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४०
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ माहेश्वरि। मम स-परिवारकस्य नेत्रे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४१
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ब्राह्मि। मम स-परिवारकस्य शिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४२
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिरे। मम स-परिवारकस्य स-छिद्रं सर्व गात्राणि रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।४३

ॐ सन्तापिनि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ सन्तापय सन्तापय हूं फट् स्वाहा।।४४
ॐ संहारिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ संहारय संहारय हूं फट् स्वाहा।।४५
ॐ रौद्रि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ रौद्रय रौद्रय हूं फट् स्वाहा।।४६
ॐ भ्रामिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ भ्रामय भ्रामय हूं फट् स्वाहा।।४७
ॐ जृम्भिणि! स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ जृम्भय जृम्भय हूं फट् स्वाहा।।४८
ॐ द्राविणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ द्रावय द्रावय हूं फट् स्वाहा।।४९
ॐ क्षोभिणि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ क्षोभय क्षोभय हूं फट् स्वाहा।।५०
ॐ मोहिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ मोहय मोहय हूं फट् स्वाहा।।५१
ॐ स्तम्भिनि। स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रु-संघ स्तम्भय स्तम्भय हूं फट् स्वाहा।।५२

।।फल-श्रुति।।
धृणोति य इमां विद्यां, श्रृणोति च सदाऽपि ताम्। यावत् कृत्यादि-शत्रूणां, तत्क्षणादेव नश्यति।।
मारणं शत्रु-वर्गाणां, रक्षणं चात्मनः परम्। आयुर्वृद्धिर्यशो-वृद्धिस्तेजो-वृद्धिस्तथैव च।।
कुबेर इव वित्ताढ्यः, सर्व-सिद्धिमवाप्नुयात्। वाय्वादीनामुपशमं, भूत-ज्वर-विनाशनम्।।
पर-विद्या-हरा सा वै, पर-प्राण-हरा तथा। पर-क्षोभादिक-करा, सर्व-सम्पत्-करा शुभा।।
स्मृति-मात्रेण देवेशि। शत्रु-वर्गाः लयं गताः। इदं सत्यमिदं सत्यं, दुर्लभा देवतैरपि।।
शठाय पर-शिष्याय, न प्रकाश्या कदाचन। पुत्राय भक्ति-युक्ताय, स्व-शिष्याय तपस्विने।।
प्रदातव्या महा-विद्या, चात्म-वर्गाय दापयेत्। विना ध्यानैर्विना जापैर्वना पूजा-विधानतः।।
विना षोढा विना ज्ञानैर्मोक्ष-सिद्धिः प्रजायते। पर-नारी-हरा विद्या, पर-रुप-हरा तथा।।
वायु-चन्द्र-स्तम्भ-करा, मैथुनानन्द-दायिनी। त्रि-सन्ध्यमेक-सन्ध्यं वा, यः पठेद्भक्तितः सदा।।
सत्यं वदामि देवेशि। मम कोटि-समं भवेत्। क्रोधाद्देव-गणास्सर्वे, लयं यास्यन्ति निश्चितम्।।
किं पुनर्मानवा देवि। भूत-प्रेतादयो मृताः। विपरीत-समा विद्या, न भूता न भविष्यति।।
पठनान्ते पर-ब्रह्म-विद्यां स-भास्करां तथा। मातृका-पुटितां कृत्वा, दशधा प्रजपेत् सुधीः।।
वेदादि-पुटिता देवि। मातृकाऽनन्त-रुपिणी। तया हि पुटितां विद्यां, प्रजपेत् साधकोत्तमः।।

पर-ब्रह्म-विद्या-
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-महा-प्रत्यंगिरे ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ, अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः। कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ। तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ। यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ। (१० वारं जपेत्)।।६६ से ७५

प्रार्थना-
ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-महा-प्रत्यंगिरे। स-परिवारकस्य सर्वेभ्यः सर्वतः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु, मरण-भयमपनयापनय, त्रि-जगतां बल-रुप-वित्तायुर्मे स-परिवारकस्य देहि देहि, दापय दापय, साधकत्वं प्रभुत्वं च सततं देहि देहि, विश्व-रुपे। धनं पुत्रान् देहि देहि, मां स-परिवारकं, मां पश्यन्तु। देहिनः सर्वे हिंसकाः हि प्रलयं यान्तु, मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रूणां बल-बुद्धि-हानिं कुरु कुरु, तान् स-सहायान् सेष्ट-देवान् संहारय संहारय, तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-लोकान् प्राणान् हर हर, हारय हारय, स्वाभिचारमपनयापनय, ब्रह्मास्त्रादीनि नाशय नाशय, हूं हूं स्फ्रें स्फ्रें ठः ठः ठः फट् फट् स्वाहा।।
।।इति श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-स्तोत्रम्।।

विशेष ज्ञातव्यः-
शास्त्रों में प्रायः सभी महा-विद्याओं और अन्य देवताओं के 'विपरीत-प्रत्यंगिरा मन्त्र-स्तोत्रादि' मिलते हैं, किन्तु यह स्तोत्र उन सबकी चरम सीमा है। इसकी 'पूर्व-पीठिका' और 'फल-श्रुति' में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। केवल करने की सामर्थ्य भर हो। किसी भी प्रकार का अभिचार, रोग, ग्रह-पीड़ा, देव-पीड़ा, दुर्भाग्य, शत्रु या राज-भय आदि क्या है ऐसा, जिसका शमन इससे नहीं हो सकता। इसके साधक को 'कृत्या' देख भी नहीं सकती, अहित कर पाना तो आकाश-कुसुम है।
१॰ पूर्व-पीठिका के तेईस श्लोकों का पाठ करके, दस दाने सफेद सरसों (इसे ही पीली सरसों भी कहते हैं। अन्य नाम हैं-सिद्धार्थ, राई, राजिका आदि।) लेकर गुरु-मन्त्र से १०० बार (१०८ बार नहीं) अभिमन्त्रित कर दशों दिशाओं में दस-दस दाना फेंक दें। फिर विनियोगादि आगे की क्रिया करके पाठ करें।
आप चाहें तो सरसों के दाने अधिक भी ले सकते हैं, किन्तु सभी दिशाओं में दाने समान संख्या में फेंके।
२॰ फल-श्रुति के अन्त में 'पर-ब्रह्म-विद्या' का १० बार जप करें। यदि अधिक संख्या में पाठ करें, तो 'पर-ब्रह्म-विद्या' का जप केवल प्रथम और अन्तिम पाठ में करें। बीच के पाठों में मात्र 'स्तोत्र' का पाठ होगा।

३॰ पुरश्चरण आवश्यक नहीं है, किन्तु सर्वोत्तम होगा कि विधि-पूर्वक १००० पाठ कर लिए जाएँ। प्रयोग के लिए १०० पाठ पर्याप्त है, यदि आवश्यक हो तो अधिक करें।
५॰ पुरश्चरण और प्रयोग काल में नित्य शिवा-बलि अवश्य दें। कौल-साधक तत्त्वों से तथा पाशव-कल्प के साधक अनुकल्पों से बलि दें।